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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३८५ रजोगुणेन पित्तानिलाभ्यां युक्तेन भ्रमो भवति, तत्र भ्रमः स्थायी पुरुषज्ञानं विपरीतसत्त्वज्ञानादिकं, अन्ये चक्रस्थितस्येव संभ्रमद्वस्तुदर्शनमिति ।। ___ जब पित्त और वायु दोनों रजोगुण भूयिष्ठ हो जाती हैं तो भ्रम होता है जिसमें पुरुष ठीक ज्ञान की स्थिति को उलट देता है। कुछ लोग भ्रम से चक्र में घूमते समय जैसे पदार्थ चलते हुए दिखाई देते हैं ऐसे उसे प्रकट होते हैं मानो भूमि घूम रही हो । बुद्धि में भ्रमता और सिर में चक्कर दोनों ही रूप में भ्रम हो सकता है। पैत्तिक ज्वर में एक लक्षण मूर्छा भी आता है। जब रोगी की संज्ञावहनाडियाँ वातादि दोषों से बन्द हो जाती या भर जाती है अथवा उनमें संज्ञाज्ञान को वहन करने की शक्ति जाती रहती है तो रोगी के सामने एकदम अँधेरा छा जाता है। (मूर्छान्धकारप्रवेश इव ज्ञानम् ) तो व्यक्ति मूञ्छित हो जाता है उसे सुख दुःख का ज्ञान नहीं रहता और वह काष्ठवत् गिर पड़ता है। पित्तज्वर में जो मूर्छा आती है वह पित्तज ही हुआ करती है जिसके लक्षण निम्न बतलाये गये हैं रक्तं हरितवर्ण वा वियत्पीतमथापि वा । पश्यंस्तमः प्रविशति सस्वेदश्च प्रबुध्यते ॥ स पिपासः स सन्तापो रक्तपीताकुलेक्षणः । जातमात्रे पतति च शीघ्रं च प्रतिबुध्यते । __संभिन्नवर्चाः पीताभो मूर्छायै पित्तसम्भवे ।। मूर्छा निम्न मानवी रोगों में देखी जासकती है-१. पित्तज्वर, २. वातपित्त ज्वर, २. ओषधि गन्धज ज्वर, ४. अभिषङ्गाख्य ज्वर, ५. अभिचरज ज्वर, ६. विसर्प (अग्नि, कर्दम, ग्रन्थि ), ७. कृमिरोग (कफज), ८. वातरक्त (पित्तज ), ९. अप. तन्त्रक, १०. सामज्वर, ११. अपतानक, १२. श्वास (तमक), १३. छर्दि (पैत्तिक), १४. हृद्रोग (पैत्तिक), १५. तृष्णा (पैत्तिक), १६. अतिसार (पैत्तिक), १७. अतिमद्यपान, १८. ग्रहणी, १९. मूत्रशकरा, २०. गुल्म (पैत्तिक ), २१. उदररोग (पैत्तिक), २२. समिपातोदर, २३. प्लीहोदर, २४. पाण्डुरोग (पैत्तिक) आदि । ___मूर्छा के सम्बन्ध में अंजननिदान और वैद्यविनोद इन दो ग्रन्थों को छोड़. सभी ने लिखा है। हारीत ने तो पित्तज्वर के लक्षणों का आरम्भ ही मूर्छा से किया है । उग्रादित्याचार्य ने पित्तज्वर का एक लक्षण मूर्छा के अतिरिक्त विमोहनानि या मोह दिया है । अर्थात् वह इस रोग में मोह भी हो सकता है ऐसा मानता है। मोह और मूर्छा समानार्थक होते हुए भी वातपित्तज्वर के प्रकरण में इसका भेद समझाया जावेगा। __चरक और वाग्भटों ने रक्तकोठाभिनिवृत्तिः अथवा रक्तकोठोद्गमः के द्वारा एक लक्षण लाल चकत्तों की उत्पत्ति का दिया है। ___ रक्तकोठाभिनिवृत्तिरिति ज्वरभ्रमावात् पित्ताशयकोपादा रक्तस्य दुष्टयारक्तवर्णकोठः स्यात् , कोठस्तु वरटीदष्टदेहप्रदेशे इव क्षणिकोत्पत्तिविनाशी मण्डलाकारः शोफः । गंगाधर ने ज्वर के प्रभाव से या पित्त के अतिशय कुपित होने के कारणः रक्त की उस दुष्टि को रकवर्ण कोठ कहा है जो बरे के काटने से चमड़े में ३३, ३४ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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