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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३७६ पित्तजविद्रधि के जो लक्षण गिनाये गये हैं उनमें जो ज्वर संज्ञा आई है वह पित्तज्वर की ओर ही अंगुलिनिर्देश करती हैपक्कोदुम्बरसंकाशः श्यावो वा ज्वरदाहवान् । क्षिप्रोत्थानप्रपाकश्च विद्रधिः पित्तसम्भवः ॥ अभिघातज विद्रधि में भी पित्तप्रधान ज्वर पाया जाता हैक्षतोष्मा वायुविसृतः सरक्तं पित्तमीरयेत् । ज्वरस्तृष्णा च दाहश्च जायते तस्य देहिनः । आगन्तुर्विद्रधि ष पित्तविद्रधिलक्षणः ॥ पाक जहां भी होता है उसका प्रधान क्या एकमात्र कारण आचार्यों ने पित्त को माना है नर्तेऽनिलाद् रुङ् न विना च पित्तं पाकः कर्फ चापि विना न पूयः। तस्माद्धि सर्वान् परिपाककाले पचन्ति शोथांस्त्रय एव दोषाः ॥ (सुश्रुत ) अतः व्रणशोथाध्याय में वर्णित पाकों में पित्त की प्रधानता अर्थात् पित्तज्वर के अनुबन्ध को कदापि विस्तृत करने की आवश्यकता नहीं है। वात और कफ का भी महत्त्व है क्योंकि वात शूलकारिणी और कफ पूयकारक है परन्तु शूल का मूल कारण स्थान विशेष में पित्त के द्वारा किए जाते हुए पाक की उपस्थिति है तथा पाक का परिणाम पूयोत्पत्ति में होता है अतः व्रणशोथजन्य विकारों में पित्त की महत्ता को भुलाया नहीं जासकता और वहाँ जितने ज्वर देखे जाते हैं उनमें पित्त का महत्त्वपूर्ण अनुबन्ध रहा करता है तथा अधिकांश वह ज्वर पित्तज्वर स्वयं या उसका छोटा या बड़ा भाई ही हुआ करता है। ___ दाह और पाक के कारण तथा ज्वर की तीव्रता के कारण शरीर में रोगी को इतनी ऊष्मा बढ़ जाती है कि वह प्यास से चिल्लाने लगता है और ठण्डा पानी माँगता है। यह जो ठण्डे पदार्थ माँगने की प्रवृत्ति है वह पित्तज्वर का ज्ञान प्रात करने में बहुत सहायता देता है । शीताभिप्रायता से इसी लक्षण को चरक ने प्रकट किया है। परन्तु सुश्रुत ने इसकी ओर ध्यान नहीं दिया। सुश्रत भावानुगामी अष्टाङ्गहृदयकार ने शीतेच्छा स्वीकार की है। उग्रादित्याचार्य ने अतिशिशिरप्रियता ऐसा लिखा है। अन्य लोगों ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। मधुकोशव्याख्याकार महामहोपाध्याय श्री विजयरक्षित ने पैत्तिके भ्रम एव च में च शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि चकारः पूर्ववदनुक्तसमुच्चयार्थः । तद्यथा तीव्रोष्णता रक्तकोठाः शीतेच्छताऽरुचिरिति । अतः सुश्रुत शीतपदार्थों की इच्छा ऐसा लक्षण पित्तज्वर का मानता है। पित्तज्वरी कभी ठण्डा पानी माँगता है कभी बर्फ की इच्छा प्रकट करता है और कभी मलाई का बर्फ माँगता है। ठण्डे पदार्थों में उसका लौल्य बहुत अधिक लगा रहता है। परन्तु यह भी समझना होगा कि कई लोगों ने इसके लक्षण की ओर अधिक महत्त्व प्रदर्शित नहीं किया। इसका कारण यह है कि पित्तज्वर एक अत्युग्र स्वरूप का ज्वर है जिसका वेग अत्यन्त तीक्ष्ण होता है। रोगी एकदम मूञ्छित या अचेत हो जाता है। मूर्छा, मद और भ्रम ये सभी विसंज्ञताकारक लक्षण साथ में रहते For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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