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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७० विकृतिविज्ञान उल्लेख किया जा चुका है। परन्तु भ्रम की ओर उतना ध्यान नहीं जा सका है। यह रजोधर्म, पित्तदोष और वातदोष इन तीनों के मेल से बनता है और यह एक प्रकार का मानसिक विकार है___ चक्रवर्द्रमतो गात्रं भूमौ पतति सर्वदा । भ्रमरोग इति ज्ञेयो रजःपित्तानिलात्मकः॥ भ्रम का लक्षण चरक ने जहाँ माना है वहाँ वृद्धवाग्भट ने भी स्वीकार किया है पर अन्यों ने इसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया है। रोगी को ऐसा लगता है कि मानो चक्र की तरह उसका शरीर घूम रहा हो इसी को चक्कर आना भी कहते हैं । यह विकार उसी दशा में उत्पन्न होता है जब पेट में खराबी या विष्टम्भ होने से वात का कोप हुआ हो या सिर में रक्त अत्यधिक चढ़ गया हो या बहुत ही कम रह गया हो। पित्त वायु और रजोगुण भूयिष्ठ वातावरण भ्रम के लिए बहुत उपयुक्त होता है। यह एक मानसिक विकार है। वातिक ज्वर में दो और मानसिक विकार देखने आ सकते हैं इनमें एक प्रलाप और दूसरा मूछो है। वसवराजीयकार ने इन दोनों लक्षणों को वातिक ज्वर के साथ सम्बद्ध बतला कर रोग की उग्रता की ओर दृष्टि निःक्षेप कराने का पूरा पूरा प्रयत्न किया है। हारीत ने प्रलाप को माना है। वृद्ध वाग्भट भी प्रलाप को मानता है क्योंकि वह चरक का ही तो अनुयायी है। मूर्छा तो संज्ञावह नाड़ियों के वातादि द्वारा आवृत होने के कारण तमो बाहुल्य से उत्पन्न होती है और प्रलाप शुद्ध वातिक रोग है। रोग की उग्रावस्था साधारण रहने पर भ्रम, कुछ अधिक होने पर प्रलाप और अत्यधिक होने पर मूर्छा देखी जा सकती है। श्रम के साथ कर्णयो स्वनः कानों में सनसनाहट भी देखी जा सकती है। आध्मान या पेट फूलना वातिक रोग में एक बहुत कष्टदायक और गम्भीर लक्षण के रूप में उपस्थित हुआ करता है। आध्मान का लक्षण सुश्रुत ने निम्न दिया है साटोपमत्युग्ररुजमाध्मातमुदरं भृशम् । आध्मानमिति तं विद्याद्धोरं वातनिरोधजम् ॥ उग्रादित्य तथा सुश्रुत दोनों ने ही इसकी उपस्थिति को स्वीकार किया है। उदर में अत्यधिक शूल का होना भी आध्मान के साथ या स्वतन्त्र रूप से पाया जा सकता है।. वात ज्वर में दन्तहर्ष की उपस्थिति चरक, अष्टाङ्गहृदयकार और अष्टाङ्गसंग्रहकार तीनों मानते हैं । दन्तहर्ष सर्वदा पित्त और वात के प्रकोप से उत्पन्न हुआ करता है शीतरूक्ष प्रवाताम्लस्पर्शानामसहा द्विजाः । पित्तमारुतकोपेन दन्तहर्षः स नामतः ।। अतः यहाँ दन्तहर्षोत्पादक कारण बन भी सकते हैं और कुछ कमी भी रह सकती है। जहाँ बने वहाँ लिख दिये गये जहाँ न बन सके उनका उल्लेख नहीं हुआ। वात ज्वर के अन्य अनेक लक्षणों के साथ साथ उष्णाभिप्रायता (चरक), धर्मेच्छा (वृद्ध वाग्भट ), हिमाप्रियत्वम् ( उग्रादित्याचार्य) धूप या गर्म द्रव्यों की लालसा भी एक महत्व का गुण है। इस दृष्टि से इस लक्षण की सहायता से रोग For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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