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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३६५ मललोचनकृष्णताति को कई आचार्यों ने प्रतिपादित किया है। दांत, ओठ और त्वचा का कोई काला होना मानता है कोई नख, नेत्र, मुखमण्डल, मूत्र, पुरीष और त्वचा की परुषता तथा अरुणता को स्वीकार करता है, कोई केवल नखों की कृष्णता पर जोर देता है तथा कोई मल और नेत्र इन दोनों की अत्यधिक कृष्णता का वर्णन करता है । वातधर्म के शरीर में अत्यधिक प्रकुपित होने से उत्पन्न रूक्षता या परुषता के दो स्वरूप अभिव्यक्त होते हैं एक अरुणता और दूसरा कृष्णता । नवीन वातज्वर में आँखों में लाल डोरा नाखूनों का हलका लाल होना, मुख पर सुखी, पेशाब में सुखी तथा मल में भी सुखी देखी जा सकती है। पर जब वात का वेग अधिक होने लगता है और उसके कारण रूक्षता बहुत अधिक बढ़ जाती है अर्थात् शरीर में जब विषरक्तता (toxaemia ) अपने पूरे वेग पर आती है तो दाँत काले पड़ जाते हैं। ओठ काले पड़ जाते हैं। मल और मूत्र का वर्ण काला हो जाता है तथा नाखून भी काले हो जा सकते हैं। अतः यह लक्षण वातप्रकोपजन्य रौक्ष्य और विषरक्तता का प्रमाण है। अरुणता बहुत जल्दी दृष्टिगोचर हो जाती है और कृष्णता बहुत अधिक कष्टसाध्य या असाध्य रोगियों में देखने को मिलती है। इस कारण वसवराजीयकार जिसने उग्रवात ज्वर का ही वर्णन दिया है और जहाँ उसने प्रलाप मूत्राघात और मूर्छा जैसे लक्षणों को लिखा है वहाँ स्वभावतः दन्तोष्ठभागे त्वचि कृष्णवर्णम् कहना उसके लिए सुलभ हो गया है। चरक ने वातज्वरी में परुषारुणवर्णत्व को प्रधानता दी है । सुश्रुत ने जिसने सर्वसाधारणतया लोक में पाये जाने वाले वातज्वर के मोटे मोटे महत्त्वपूर्ण लक्षणों को लिखा है इस लक्षण का कोई उल्लेख नहीं किया। वृद्ध वाग्भट तथा अष्टाङ्गहृदयकार वाग्भट ने अरुणता को ही माना है। हारीत ने उग्रवात ज्वर की ओर इङ्गित किया तो अवश्य है पर केवल कृष्णनखता पर ही उसे छोड़ दिया है। उग्रादित्य ने मल और लोचनों की कृष्णता को ही स्पष्ट किया है। ८० प्रकार के वातरोगों का जिन्होंने वर्णन किया है उन्होंने श्यावता को नहीं छोड़ा-कम्पः काश्यं श्यावता च प्रलापः इत्यादि अतः कालापन आना वातप्रकोप का स्वाभाविक धर्म है। कषायास्यता तथा आस्यवरस्य ये दो लक्षण मुख के अन्दर मिलते हैं। चरक ने इन दोनों का ही उल्लेख किया है। उसने जो अनेकों रोगी देखे उनमें से किसी के मुख में कषायता या कसैलेपन का अनुभव पाया और किसी में विरसता का। वक्त्र वैरस्य के नाम से सुश्रुत ने भी इसे बतलाया है। वात के ८० रोग जिन्होंने स्वीकार किये हैं उन्होंने ये दोनों लक्षण माने हैंअनवस्थितचित्तत्वं काठिन्यं विरसास्यता। कषायवक्त्रताऽऽध्मानं प्रत्याध्मानं च शीतता ।। वृद्ध वाग्भट ने कषायास्यता मानी है। वसवराजीयकार ने इनका उल्लेख नहीं किया । उग्रवातज्वरी में इन्हें समझने के लिए समय ही कहाँ मिलता है ? हारीत ने विरसता को उग्रादित्याचार्य के समान ही स्वीकार किया है। आस्यवैरस्य को चक्रपाणिदत्त ने अरसज्ञता बतलाया है; परन्तु गंगाधर ने उसे स्वभावरसान्यथाभावः For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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