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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३५६ विकृतिविज्ञान (६) सर्वाङ्गदुःखं शिरसोऽतिघातो । मन्दोष्णमत्युष्णमिति प्रभावम् ॥ कम्पो विबन्धी मलमूत्रशुष्कम् । दन्तोष्ठभागे त्वचि कृष्णवर्णम् ॥ विजृम्भणं शीतमरोचकं स्यात् । विष्टम्भनं बन्धरुजा च पार्श्वे ॥ रोमाञ्चकं वान्ति रुजावनाहं । प्रलापनं मूर्च्छनकं विदाहः ॥ अत्यन्तशैत्यं ह्यतिमूत्रघातः । पदातिशूलं नखशोषणश्च ॥ ( वसवराजीय ) (७) अङ्गपीडनमलमार्गातिरोधनातिपीडनधातु मार्गविगमनानिलादनलस्थलचलनादिनाऽनिलज्वरः । ( आयुर्वेदसूत्र ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊपर जो सात उद्धरण विविध आर्ष ग्रन्थों से दिये गये हैं वे वातदोष के प्रकुपित होने के कारण मानव शरीर में जो ज्वर के सहवर्ती विविध लक्षण उत्पन्न होते हैं उनका अपनी-अपनी भाषा में दृष्टिकोण विशेष को लेते हुए चित्रण करने का प्रयास ही जानना चाहिए । माधवनिदान में वर्णित सुश्रुतोक्त वातज्वरलक्षण ही बहुधा लोक में प्रसिद्ध हैं । जिसके अनुसार कम्प, ज्वर के वेग की विषमता, कण्ठ और ओष्ठों का सूखना, निद्रा का नाश, छींक का रुकना, गात्र की रूक्षता, शिरःशूल, हृच्छूल, सर्वांगशूल, मुख की विरसता, मल की गाढ़ता, उदरशूल, आध्मान और जम्हाइयों का अधिक आना ये १४ लक्षण बहुधा होने पर वातज्वर का विचार करते हुए वैद्यगण चिकित्सा में प्रवृत्त होते हैं । चरक के द्वारा वातज्वर के जो लक्षण वर्णित हैं उससे पूर्व उसने जो पृष्ठभूमि तैयार कर रखी है उसे टालते हुए या उसकी उपेक्षा करते हुए उक्त लक्षणों को समझने का प्रयास करना प्रयासमात्र ही हो सकता है उससे किसी ठोस तथ्य पर नहीं पहुँचा सकता । वह पृष्ठभूमि है : तद्यथा - रूक्ष लघुशीतवमन विरेचनास्थापन शिरोविरेचनातियोगव्यायाम वेगसन्धारणानशनाभिघातव्यवायोगशोक शोणिताभिषेक जागरण विषमशरीरन्यासेभ्योऽतिसेवितेभ्यो दायुः प्रकोपमापद्यते । स यदा प्रकुपितः प्रविश्यामाशयमुष्मणः स्थानमुष्मणा सह मिश्रीभूय आद्यमाहारपरिणामधातुं रसनामानम् अन्ववेत्य रसस्वेदवहानि स्रोतांसि विधायाग्निमुपहत्य पत्तिस्थानात् ऊष्माणं बहिर्निरस्य केवलं शरीरमनुपद्यते तदा ज्वरमभिनिर्वर्त्तयति । रूखा, हलका, ठण्डा, भोजन या औषध या देश या काल का सेवन, वमन, विरेचन, आस्थापन, शिरोविरेचन नामक शोधन कर्मों का अतियोग हो जाना । व्यायाम अधिक कर बैठना । वेगों को रोक लेना । अनशन करना । चोट लगना । अतिमैथुन करना । उद्वेग या शोकाधिक्य रखना । रक्तमोक्ष का अधिक हो जाना । रात्रि में अधिक जागना तथा शरीर को विषमावस्था में उलटा पुलटा कर रखना आदि कारणों से वायु का प्रकोप होता है । जब वायु प्रकुपित हो जाती है तब वह नाभि और स्तनों के मध्य में बने आमाशय में प्रवेश करती है । प्रवेश करने के साथ ही साथ वातज्वर के पूर्वरूप मुखवैरस्य, गुरु गात्रता इत्यादि बनने लगते हैं । आमाशय में और उसके भी आगे पच्यमानाशय में अश्न का जो परिपाक होता रहता है और उसके कारण जो रस नामक धातु बनती है जो For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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