SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ विकृतिविज्ञान ब्दश्वास लेता है और अपने को दमे से पीडित समझता है। खाँसी बहुत अधिक है। आयुर्वेद ने उसे असाध्य न मानकर कृच्छ्रसाध्य माना है। इसी आशा पर चिकित्सा है पर उसके जराजीर्ण शरीर से बहुत आशा लगाना पूर्णतः व्यर्थ मालूम होता है । महाश्वास इस रोग की विशेषता हैउधूयमानो वातो यः शब्दवद् दुखितो नरः । उच्चैः सिति संघट्टो मत्तर्षभ इवानिशम् ॥ प्रनष्टज्ञानविज्ञानस्तथाविभ्रान्तलोचनः। विवृताक्ष्याननो बद्धमूत्रवर्चा विशीर्णवाक् ॥ दीनः प्रश्वसितं चास्य दूराद्विज्ञायते भृशम् । महाश्वासोपसृष्टस्तु क्षिप्रमेव विपद्यते ।। यह निश्चित है कि महाश्वासाक्रान्त रोगी थोड़ी ही देर का मेहमान हुआ करता है। ऊपर चरकोक्त महाश्वास का जो स्वरूप वर्णित है वह मरणासन्नावस्था की एक झलक है। परन्तु मज्जागत ज्वर में जो महाश्वास मिलती है उसमें उद्धृयमानवात का सशब्द निकलना मात्र अभिप्रेत है। रोगी जोर जोर से श्वास लेता है जिसका शब्द दूरी पर सुना जा सकता है। श्वास की अधिकता और अन्तर्दाह के कारण रोगी उलटा पड़ा रहता है या बैठना अधिक पसन्द करता है। मर्मच्छेद मज्जागत ज्वर का एक महत्त्व का लक्षण है। अस्थिगत ज्वर में अस्थि या पर्यस्थशूलोपरान्त बने मजागत ज्वर में किसी मर्मस्थल पर छेदनवत् पीड़ा मिल सकती है । यह अस्वाभाविक नहीं है । पर कार्तिक ने (निसने धातुगत ज्वरों पर पर्याप्त कार्य किया है) मर्म शब्द से हृदय लिया है और मर्मच्छेद से हृत्पीड़ा को ग्रहण किया है। हृत्पीडा या हृत्स्पन्दन का बन्द होकर हार्टफेल होना भी इसमें लिया जा सकता है। एक अन्य रोगी कक्का कल्लासिंह बहुत जीर्ण रोगी थे, श्वासोपद्रव युक्त अन्तर्दाह से पीडित शरीर में जिनके अस्थिमात्र ही अवशिष्ट था। अकस्मात् रात्रि में मर्मच्छेद के आकस्मिक आक्रमण से चार दिन पूर्व कालकवलित हो चुके हैं। अतः हृद्भेद या हृच्छ्रल या अस्थिमर्मशूल कुछ भी सन्दर्भानुसार लिया जा सकता है। चातुर्थक ज्वर भी अस्थि तथा मज्जागत होता है। विषमज्वर का वह एक रूप है, उसमें अन्तर्दाह, महाश्वास, मर्मच्छेद, हिक्कादि लक्षण नहीं मिलते और न मज्जागत ज्वर के इस वर्णन में कहीं यह आया है । इसका ज्वर हर चतुर्थ दिन चढ़ता है । इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि चातुर्थक ज्वर तथा मज्जागत ज्वर ये दो विभिन्न रूप वाले दो पृथक् ज्वर हैं और दोनों का वर्णन एक ही लेखक पृथक्-पृथक् करता भी है । शुक्रगतज्वर (१) मरणं प्राप्नुयात्तत्र शुक्रस्थानगते बरे । शेफसः स्तब्धता मोक्षः शुकस्य तु विशेषतः ।। ( सुश्रुत ) (२) तमसा दर्शनं मर्मच्छेदनं स्तब्धमेढ़ता । शुक्रप्रवृत्तिर्मृत्युश्च जायते शुक्रसंश्रये ॥ ( वृद्धवाग्भट) (३) शुक्रस्थानगते शुक्रमोक्षं कृत्वा विनाश्य च । प्राणवाय्वग्निसोमश्च सार्धं गच्छत्यसौ विभुः ॥ (चरक) शुक्रगत ज्वर के सम्बन्ध में ऊपर जो सूत्र दिये गये हैं वे शुक्रगतज्वर के लक्षण न बतला कर शुक्रधातुगत ज्वर के कारण होने वाली रोगी की मृत्यु का दृश्यमात्र उपस्थित करते हैं कि शुक्रस्थानगत ज्वर में मृत्यु मिलती है। मृत्यु से पूर्व मेढ़ कड़ा हो जाता है और उससे शुक्र का क्षरण हो जाता है। वृद्धवाग्भट ने इस रोग के कुछ लक्षण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy