SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३४५ चला जा सकता है। इसी दृष्टि से अब हम सप्तविध धातुगतज्वरों को स्पष्ट करने का या करते हैं। रसगतज्वर (१) गुरुत्वं शीतमुद्वेगः सदनं छर्घरोचकौ । रसस्थिते बहिस्तापः साङ्गमर्दो विज़म्भणम् ।। (चरक) (२) गुरुता हृदयोत्क्लेशः सदनं छर्घरोचकौ । रसस्थे तु ज्वरे लिङ्ग दैन्यं चास्योपजायते ॥ (सुश्रुत) (३) रसस्थे तु ज्वरे वत्स लक्षणानि निबोध मे। गुरुत्वं दैन्यमुत्क्लेशः सदनं छर्च रोचकौ (डल्हणटीका) (४) उत्क्लेशो गौरवं दैन्यं भङ्गोङ्गानां विजम्भणम् । अरोचको वभिः सादः सर्वस्मिन् रसगे ज्वरे ॥ ( वृद्ध वाग्भट) रसस्थः सन्ततम् इस दृष्टि से ऊपर जो लक्षण दिये हैं वे सन्तत ज्वर के हैं । पर सन्तत व्यतिरिक्त किसी भी हेतु विशेष के कारण जब ये लक्षण प्रगट होंगे तो निस्सन्देह उसे रसगत ज्वर की संज्ञा दी जा सकती है। ___ अविकृत रस धातु का श्रेष्ठ कर्म प्रीणन या तृप्ति माना गया है। जब इसकी वृद्धि होती है तो शरीर में श्लेष्मा का धर्म बढ़ जाता है जिससे अग्निसाद हो सकता है। रस धातु की क्षीणता होने पर रूक्षता, श्रम, शोष, ग्लानि और शब्द के सुनने मात्र में असहिष्णुता पाई जाती है। रस धातु के प्रकृत और विकृत स्वरूपों को हृदयस्थ करके भब यदि हम रसगत ज्वर का अध्ययन करें तो पर्याप्त गहराई तक हम पहुँच सकते हैं। रसधातु में ज्वर के पहुंचने से शरीर में गौरव या गुरुता की अविलम्ब वृद्धि होती है। गौरव की वृद्धि श्लेष्म ज्वर का भी एक लक्षण है। श्लेष्मा के निर्दुष्ट लक्षणों में स्थिरता, स्निग्धता सन्धिबन्धन दार्य प्रमुख हैं। ज्वर जब रसधातु में प्रविष्ट हो जाता है तो शरीरस्थ श्लेष्मस्रावी और श्लेष्म वाहक अंगों पर विशेष प्रभाव डालता है। इसका प्रभाव सर्वांगीण अवसाद में होता है जिसे चरक और सुश्रुत दोनों ने सदन शब्द से व्यक्त किया है। सर्वांगीण अवसाद सदैव हृदय पर हुए अवसाद का ही प्रत्यक्ष परिणाम माना जाता है अतः उसके पूर्व हृदयोक्लेश या उद्वेग नामक लक्षण का उल्लेख किया जावे तो वह भी सङ्गत माना जाना चाहिए। श्लैष्मिक रसधातु की वृद्धि के कारण अरुचि का होना एक स्वाभाविक परम्परा है। आयुर्वेद में जहाँ कहीं अरुचि नामक लक्षण मिले विद्यार्थी का धर्म है कि वह समझ ले कि रोगी की रसधातु दूपित है और श्लेष्मा का जोर है। अरुचि के साथ ज्वर का अनुबन्ध होने पर वमन का होना स्वाभाविक है। इसी कारण रसगतज्वर के आरम्भ में जहाँ सम्पूर्ण शरीर भारी हो जाता है और हलकी हलकी मचली आने लगती है आगे चलकर दो एक दिन में ही वमन भी पाई जा सकती है। ३ दिन पूर्व एक रोगी (जो एक राजकीय औषधालय में वैद्य ही हैं) को देखने का अवसर मिला उनका सिर भारी था और उन्हें उत्क्लेश तथा वमन चल रहा था। ज्वर सन्तत रहा । महत्त्व की बात यह रही कि उनके हृदय पर भी थोड़ा शूल था जिसे उन्होंने श्वसनक या न्यूमोनियाँ का आदि कारण समझा। श्वसनकीय चिकित्सा से उन्हें कोई भी लाभ हुआ नहीं और रोग विषमज्वर के शमनोपायों द्वारा ठीक किया जा सका। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy