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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३३६ इति तत्र यस्मिन् दिने हृदयस्थो दोष आमाशयमागत्य ज्वरयति तस्मिन् दिने कण्ठस्थो हृदयं शिरस्थञ्च कण्ठमायाति, अपरदिने हृदयस्थ आमाशयमागत्य ज्वरयति कण्ठस्थितश्च हृदयमायाति, अपरदिने हृदिस्थ एवामाशयमागत्य ज्वरयति, एवं दिनत्रये भूत्वा पश्चादेकदिनं न भवतीति चतुर्थकविपर्यय इति । ये सभी विपर्ययज्वर मुनिप्रणीतत्वात् शास्त्रविरुद्ध नहीं माने जाते । तथा इनकी चिकित्सा मूलतृतीयक का चातुर्थक रोग के समान ही की जाती है। विषमज्वरों की त्रिदोषात्मकता . ' इस सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया जा चुका है। यह पञ्चविध विषमज्वर प्रायः सनिपातात्मक ही होता है और सन्निपात में भी जो दोष अधिक प्रबल होता है उसी दोष के नाम पर उसका नामकरण हो जाता है। परिवर्तनीय परिस्थितियाँ एक प्रकार का विषमज्वर दूसरे प्रकार के विषमज्वर में बदल जाता है इसके लिए निम्न परिस्थितियाँ उत्तरदायी होती हैं : १. ऋतु २. अहोरात्र ३. दोष ४. मन ५. काल ६. प्राक्तनकर्म । .. सन्ततादि ज्वर उत्तरोत्तर दुर्बल होते हैं । अर्थात् सन्तत से सतत, सतत से अन्येद्यक, अन्येद्यप्क से तृतीयक और तृतीयक से चातुर्थक ज्वर अल्पदोष भूयिष्ठ हुआ करता है। ये दुर्बल ज्वर ऋतु, अहोरात्र, दोष, मनस् के बल से प्रबल होकर पूर्व पूर्व प्रबल ज्वरकाल को प्राप्त हो जाते हैं । उस काल के कारण उसे वैसा वैसा ज्वर कह कर पुकारा जाता है। ऋत्वादि के अबल होने से प्रबल ज्वर का ह्रास होने लगता है और उत्तरोत्तर दुर्बल ज्वरोपलब्धि हो जाती है। उस काल के अनुसार वह वह दुर्बल ज्वर कहा जाता है। सन्तत ज्वर ऋत्वादि बल और सब में पहला होने से अति बलवान् होता है चतुर्थक ज्वर सबसे बाद में आने के कारण ऋत्वादिबल से अत्यन्त दुर्बल या नष्ट कहा जाता है। . ऐसे ही वात प्रधान चातुर्थक, तृतीयक, अन्येशुष्क या सततज्वर प्रावृट ऋतु आने पर बलोपलब्धि करके अपने पूर्व पूर्व के ज्वरों को प्राप्त हो जाते हैं। सतत सन्तत में बदल जाता है अन्येद्यष्क सतत हो जाता है, तृतीयक अन्येधुष्क और चातुर्थक तृतीयक हो जाता है। यदि ज्वर पित्त प्रधान हुए तो शरत्काल में लब्धबल होकर पूर्व पूर्व में परिणत हो जाते हैं। कफ प्रधान ज्वर वसन्त ऋतु में इसी प्रकार अपने रूप को छोड़ कर अपने से बलवान स्वरूप का धारण कर लेते हैं। ... वात प्रधान सन्तत सततकादि ज्वर शरद या वसन्त काल में अल्पबल हो जाते हैं जिसके कारण सन्तत सतत में सतत अन्येशुष्क में, अन्येदुष्क तृतीयक में तृतीयक चातुर्थक में और चातुर्थक दो के स्थान पर ३ या ४ दिन छोड़ कर आनेवाले ज्वर में बदल जाता है या पूर्णतः नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पित्त प्रधान विषम ज्वर हेमन्त १. चतुर्थश्चेदवम् अतिक्षीणो वा नष्टो वा स्यादिति । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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