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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान हुआ और धातुपाक की स्थिति बनी तो मेदो धातु के विनष्ट होने से रोगी का मुटापा घट कर वह सूख जाता है। अत्यधिक मेदस्विता को घटाने का अच्छा साधन अन्येधुष्कज्वर बन तो सकता है पर धातुपाक के कारण होने वाले अरिष्ट लक्षणों के लिए शमनोपाय कहाँ मिलेगा ? अत्यधिक मात्रा में मल्ल प्रयोग से कुष्ठ का नाश तो हो सकता है पर कुष्ठी का जीवन भी साथ ही साथ इह लोक से जाने के लोभ का संवरण कर नहीं सकेगा। तृतीयकज्वर अन्येशुष्कः प्रतिदिनं दिनं क्षिप्त्वा तृतीयकः । नाति प्रकुपितो दोष एककालमहर्निशम् । ___ मांसस्रोतस्यनुगतो जनयेत् तु तृतीयकम् ।। तथा--तृतीयकस्तृतीयेऽह्नि। अन्येधुष्क जहाँ प्रतिदिन होता है तृतीयक ज्वर एक एक दिन छोड़ कर आता है। अन्येधुस्कारम्भक दोष जो अधिक प्रकुपित न होने के कारण अहर्निश में केवल एक बार ही ज्वरोत्पत्ति करते हैं वे ही दोष मांसवाही स्रोतों का अनुगमन करते हुए और नाति प्रकुपित होने के कारण एक दिन छोड़ कर हर तीसरे दिन तृतीयक नामक ज्वर को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं । अन्येद्यष्क २४ घण्टे में एक बार सरकारी होता है तथा तृतीयक ४८ घण्टे में एक बार आने वाला होता है। इतवार को सबेरे ८ बजे जो ज्वर चढ़ा है वही मंगलवार को ८ बजे ठीक ४८ घण्टे बाद आने पर तृतीयक कहा जाता है। सुश्रुत ने अन्येशुष्क को पिशिताश्रित या मांस में स्थित माना है जब कि चरक तृतीयक को मांसाश्रित मानता है । कारण उसका है अन्येधुष्क के पश्चात् ततीयक का होना । यह प्रायशः देखा जाता है कि पहले दिन में एक बार ज्वर आकर फिर वही तृतीयक में बदल जाता है। सुश्रुत तृयीयक ज्वर को मेदोगत मानता है उसके लिए मांस धातु से ही दोष जीर्ण होकर मेदोधातु को प्राप्त हुआ करता है अतः 'मेदोगतस्तृतीयेऽह्नि' पूर्णतः उचित है विरोध नहीं है। . चातुर्थकज्वर संश्रितो मेदसो मार्ग दोषश्चापि चतुर्थकम् । दिनद्वयं यो विश्राम्य प्रत्येति स चतुर्थकम् ।। अधिशेते यथा भूमि बीजं कालेऽवरोहति । अधिशेते तथा धातून् दोषः कालेऽवकुप्यति ।। स वृद्धिं बलकालञ्च प्राप्य दोषस्तृतीयकम् । चतुर्थकं च कुरुते प्रत्यनीकं बलक्षयात् ।। कृत्वा वेगं गतबलाःस्वे स्वे स्थाने व्यवस्थिताः। पुनर्विवृद्धाःस्वे काले ज्वरयन्ति नरं मलाः।। कफपित्तात्त्रिकग्राही पृष्ठाद्वातकफात्मकः । वातपित्ताच्छिरोग्राही विविधः स्यात्तृतीयकः ।। चतुर्थको दर्शयति प्रभावं द्विविधं ज्वरः। जङ्घाभ्यां श्लैष्मिकः पूर्व शिरसोऽनिलसम्भवः ।। विषमज्वर एवान्यश्चतुर्थकविपर्ययः। त्रिविधो धातुरेकैको द्विधातुस्थः करोचयम् ।। प्रायशः सन्निपातेन दृष्टः पञ्चविधो ज्वरः। सन्निपाते तु यो भूयान् स दोषः परिकीर्तितः ।। ऋत्वहोरात्र-दोषाणां मनसश्च बलाबलात् । कालमर्थवशाच्चैव ज्वरस्तं तं प्रपद्यते ।। इस चातुर्थक ज्वर के विवरण के साथ-साथ कई महत्त्व की बातों का और भी समावेश उपरोक्त सूत्रों में हो जाने के कारण और प्रसंगवश हम यहाँ निम्न विषय उपस्थित करेंगे For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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