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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर तो व्यक्ति को सन्ततज्वर समाप्त कर देगा और यदि उनका शोधन यथावत् और पूर्णतः हो गया तो सन्तज्वर स्वयं समाप्त हो जावेगा। अथवा दैववशात् स्वतः मलपाक हो गया तो सन्ततज्वर स्वयं समाप्त हो जावेगा और दुर्दैववशात् धातुपाक हो गया तो रोगी स्वयं समाप्त हो जावेगा। चक्रपाणिदत्त ने इसी को और भी स्पष्ट किया है-- __सन्ततः यदा सर्व रसादयः सर्वथा विशुद्धा भवन्ति तदा प्रशाम्यति सप्ताहादिषु, यदा रसादयः सर्वे सर्वथा वा अविशुद्धा भवन्ति तदा घ्नन्तीत्यर्थः । यह नहीं भूलना है कि यह शुद्धिकार्य सन्ततज्वर में बारहों आश्रयों में आवश्यक है। __सन्ततज्वर की ऊष्मा सदैव मलों अथवा धातुओं को क्षीण किया करती है। जब उसके द्वारा मल क्षीण होते हैं तो रोगी जी पड़ता है और जब धातुक्षीण होते हैं तो रोगी मर जाता है । इसी को वृद्ध वाग्भट ने बड़े सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है-- मलावरोष्मा धातून् वा शीघ्र क्षपयंस्ततः । सर्वाकारं रसादीनां शुध्याऽशुध्याऽपि वा क्रमात् ।। वातपित्तकः सप्त दशद्वादशवासरान् । प्रायोऽनुयाति मर्यादां मोक्षाय च वधाय च ।। सन्ततज्वर की दीर्घकालानुबन्धिता निःशेषेण द्वादशाश्रयों की शुद्धि का परिणाम विजय और निःशेषेण ही द्वादशाश्रयों की अशुद्धि का परिणाम पराजय इतना जान लेने पर अब यह जानना शेष रहा कि निःशेषेण शुद्धि न होकर स्तोक शुद्धि ही हो तो क्या होगा। इन्द्र ने हारीत के वाक्य शुध्यशुद्धौ ज्वरः कालं दीर्घमप्यनुवर्तते की टीका में लिखा है कि-- ___यदा तु रसादीनां मध्ये केषाञ्चिच्छुद्धिशुद्धिरश्च केषाश्चित्तदा सन्ततो ज्वरो न मुञ्चति, नापि मारयति केवलं दीर्घकालमनुवर्तते । जब रसादि धातुओं की पूर्ण शुद्धि नहीं हो पाती अथवा द्वादशाश्रय सभी शुद्ध नहीं हो पाते तो सन्ततज्वर बारहवें दिन विसर्ग या विश्राम लेकर अव्यक्त लक्षण और दुर्लभोपशम बन कर दीर्घकाल तक चलता रहता है । सन्ततज्वर के दीर्घकालानुबन्धी होने का मुख्य कारण द्वादशाश्रय का पूर्णतः शुद्ध न होना या उनमें से कुछ की शुद्धि हो जाना और कुछ का ज्यों का त्यों अशुद्ध पड़ा रहना है। ऐसी अवस्था में बारहवें दिन यह ज्वर थोड़ा उतर जाता है और उसके पश्चात् हलका हलका बराबर बना रहता है और ऐसे ज्वर का निकलना बहुत कठिन हो जाता है उसका उपशम होना अत्यन्त कष्टकारक हो जाता है इस रूप को दीर्घकालानुबन्धिरूप कहा जाता है । एक ब्राह्मणपत्नी को सन्ततज्वर का प्रथम आक्रमण हुआ और उसकी जो विधिवत् चिकित्सा होनी चाहिए थी वह न की जा सकी परिणामतः रोगिणी के ज्वर के द्वादशाश्रयों का पूर्ण शोधन सम्भव न हो सका इसका परिणाम यह हुआ कि पण्डित जी को २ वर्ष निरन्तर चिकित्सा करानी पड़ी फिर भी ज्वर ९९° से नीचे नहीं जा सका बाद में धीरजपूर्वक उक्त दोष दूष्यादि की पूर्ण शुद्धि की व्यवस्था की गई तब जाकर उसकी जीवनरक्षा हुई। अतः सन्तत की दीर्घकालानुबन्धिता की ओर, कभी दुर्लक्ष्य For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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