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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... ज्वर ३१६ स्थान के १२ वें अध्याय में दिया हुआ है। यहाँ संक्षेप में चरक ने जो लिखा है वह इस प्रकार है उष्णमुष्णेन संवृद्धं पित्तं शरदि कुप्यति । चितः शीते कफश्चैवं वसन्ते समुदीर्यते ॥ वर्षास्वम्लविपाकाभिरद्भिरोपविभिस्तथा । सञ्चितं पित्तमुद्रिक्तं शरद्यादित्यतेजसा ।। ज्वरं सञ्जनयत्याशु तस्य चान्द्र बलः कफः । प्रकृत्यैव विसर्गाच्च तत्र नानशनाद भयम् ।। अद्भिरोषधिभिश्चैव मधुराभिश्चितः कफः । हेमन्ते सूर्यसन्तप्तः स वसन्ते प्रकुप्यति ॥ तस्माद् वसन्ते कफजो ज्वरः समुपजायते । आदानमध्ये तस्यापि वातपित्तं भवेदनु । आदावन्ते च मध्ये च ज्ञात्वा दोषबलाबलम् । शरद्वसन्तयोविद्वान् ज्वरस्य प्रतिकारयेत् ॥ उष्ण पित्त उष्ण ग्रीष्म ऋतु में बढ़ कर शरद ऋतु में प्रकुपित होता है। शीतल कफ शीत ऋतु में बढ़ कर वसन्त में प्रकुपित हो जाता है। वर्षा ऋतु में ओषधियाँ तथा जल अम्लनिपाकी होकर सूर्य के तेज से सञ्चित हुआ प्राणियों के शरीर का पित्त शरद् ऋतु में उदीर्ण होकर शीघ्र ज्वर को उत्पन्न करता है। काल के स्वभाव के कारण और विसर्ग काल होने से उस ज्वर में कफ का भी थोड़ा अनुबन्ध होता है। अतः पित्त और श्लेष्मा दोनों को ठीक स्थिति में लाने के लिए अनशन या लंघन कराने से कोई हानि नहीं होती। कहने का तात्पर्य यह कि शरत्कालीन ज्वरों के आमदोष को पचाने का परमोत्तम उपाय लंघनकर्म है। मधुर रस युक्त जल और ओषधियों के कारण हेमन्त ऋतु में प्राणियों के शरीर में संचित हुआ कफ वसन्त ऋतु में सूर्य के कुछ तप्त होने के साथ ही प्रकुपित हो जाता है। और इसी के कारण ज्वरोत्पत्ति भी होती है। यह आदान काल होने से पित्त का भी अनुबन्ध रहता है और सूर्य किरणों के द्वारा स्नेहभाव की कमी होने से रूक्षता मी होने लगती है अतः वात का भी अनुबन्ध होता है। अर्थात् वसन्तकालीन कफज्वर के साथ-साथ वात और पित्त के दोनों दोष अनुबन्ध रूप में मिलते हैं। कहा भी है वसन्तोह्यादानमध्यम ऋतुः सूर्यकरसहस्रेण प्राणिनां स्वेहादानतो मध्यमत्वेन मध्यबलत्वात् रोक्ष्योष्णाभ्यां तस्यापि ज्वरस्यानु अनुबन्धरूपं वातपित्तं भवेत् । यहाँ भी कफ को दूर करने के लिए लंधनों का आश्रय लिया जा सकता है क्योंकि प्राणी मध्यम बलयुक्त होता है। अतः विद्वान् वैद्य को शरद् या वसन्त ऋतु के आदि मध्य या अन्त में दोष के बलाबल का विचार कर उचित प्रतीकार करना चाहिए। क्योंकि ये प्राकृत ज्वर सुख साध्य होते हैं। वर्षा कालीन वातिक ज्वर जिसमें थोड़ा पित्त का भी अनुबन्ध रहता है कष्टसाध्य माना गया है क्योंकि वहाँ संचित और प्रकुपित दोष वात को लंघन द्वारा निकाला नहीं जा सकता और वर्षा का काल स्वयं दुःखदायी होने से आमदोष का अत्यधिक संचय हो जाता है। - उपरोक्त तीनों कालों में जिस क्रम से ज्वर बतलाया गया है उसके विरुद्ध जो ज्वर का अन्य क्रम बनेगा वह सभी वैकृत ज्वर की कुञ्जी में आता है। जैसे शरद् ऋतु में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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