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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -३१४ विकृतिविज्ञान में विरसता होने के कारण और अस्थिर चित्तता की सहव्याप्ति के होने से खाद्य द्रव्यों में अति और कुपथ्यकर पदार्थों में प्रीति मिलती है । पर यह प्रीति भी चिरस्थायी नहीं होती । अपथ्य को रोकने के लिए जो हितेच्छु कुछ कहता है तो उससे रोगी बहुत अभद्र व्यवहार करने लगता है । बालक या शिशु जिन्हें मधुर द्रव्य अत्यन्त प्रिय होते हैं ज्वर आने से पहले उनसे द्वेष करने लगते हैं । इस प्रकार असूया से ये दो लक्षण मिलते हैं । गतिस्खलन - क्रियाशक्ति में कमी या गति करने पर गिर पड़ना, लड़खड़ा जाना यह भी एक लक्षण है जो ज्वर के पूर्व मिल सकता है। रोगी को लाठी की या किसी के सहारे की आवश्यकता पड़ती है । यह लक्षण ज्वरोत्तरकालीन या सज्वरावस्था मैं अधिक मिलता है पर जब संक्रामक व्याधिजनित गम्भीरज्वर का विष शरीर में प्रवाहित हो रहा हो तो गतिनियामक केन्द्र में विभ्रमोत्पत्ति हो सकती है जो गतिस्खलन करा दिया करती है । यह लक्षण वृद्ध वाग्भट ने प्रदर्शित किया है । वृषा - बालेषु तृभृशम् का अर्थ बालकों में प्यास की अधिकता होना किया जाता है | अधिक प्यास का होना यह ज्वरानुपूर्वी रोगियों में आरम्भ से भी मिल सकता है । जितना ही ज्वरकारी हेतु अधिक विषाक्त होगा प्यास उतनी ही अधिक लगेगी । ज्वर बालकों में सदैव अधिक तृष्णा की उत्पत्ति करता है । शीलविकृति - चरक ने शील की विकृति को भी ज्जर के पूर्वरूपों में रख दिया है । यहाँ शील से स्वभाव अभिप्रेत है। रोगी का जो स्वभाव साधारण लोक में देखा जाता है उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाता है । जो दानी दान करता रहता था वह थोड़े से पदार्थ का भी अपने लिए संचय करने लगता है । निस्स्वार्थबुद्धि स्वार्थपरायण बन जाता है। मिष्टभाषी कटुभाषी हो जाता है । निर्लज्जता, लोभ, भीरुता, स्वार्थादि दुर्गुणों का प्रत्येक प्राणी में कितना संग्रह है । इसे उसके ज्वराक्रान्त होने के पूर्व या ज्वरकाल में भले प्रकार देखा जा सकता है। इसी को चरक ने स्वकार्येषु प्रतीपता कह कर भी पुकारा है । संक्षेप में, ज्वरपूर्वावस्था प्रत्येक प्राणी में एक अत्यन्त महत्त्व का स्थान रखती है । व्यक्ति का अपना स्वभाव बदल देती है उसका साहस कम कर देती है । उसे थका देती है और उसे खाट पर लेटे रहने को वाध्य कर देती है । उसका अंग प्रत्यंग दुखने लगता है और वह तुनुकमिजाज ( अनवस्थित चित्त ) हो जाता है । यतः ये सभी विकृतियाँ हैं जो एक प्रकृतं प्राणी में देखने में आती हैं अतः हमने अभिनवविकृतिविज्ञान नामक इस पुस्तक में इनका समावेश किया है। ज्वर के पूर्वरूपों का संक्षिप्त पर सम्पूर्णत्वेन वर्णन की दृष्टि से चरकसंहिता के निदानस्थान में वर्णित विवरण हम यहाँ अविकुल उद्धृत किये देते हैं । इनमें कुछ लक्षण ऐसे भी हैं जिन्हें हमने पीछे नहीं दिया । बहुत से लक्षण उवर के समय अधिक स्पष्ट होने से आगे कहे जावेंगे तस्येमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति - तद्यथा - मुखवैरस्यं गुरुगात्रत्वमनन्नाभिलाषश्चक्षुषोराकुलत्वमश्वाअनं निद्राधिक्यं अरतिः जृम्भा विनामो वेपथुः श्रमभ्रमप्रलापजागरणरोमहर्षदन्तहर्षाः शब्दशीतवा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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