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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१२ विकृतिविज्ञान बहुनिद्रता - यह लक्षण अष्टांगहृदयकार वाग्भट के अतिरिक्त किसी ने भी नहीं लिखा है । ज्वर के पूर्व श्रम आलस्य और अल्पप्राणता की व्याप्ति का परिणाम अतिशय शयन करना या लेटे रहने में होना सम्भव है । अतिश्लेष्माजनित ज्वर में निद्रता की अधिकता स्वयं सिद्ध है तथा वातप्रधान ज्वरों में अनिद्रता मुख्यतया पाई जाती है। पर लेटे रहने की स्थिति दोनों में पाई जाती है । बहुनिद्रता के द्वारा यही भाव यहाँ व्यक्त होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोमहर्ष - रोंगटे खड़े होना। शरीर में शीत के कारण प्रकम्प होकर त्वचा के रोगों को पहुँचने वाले त्वचा में स्थित पेशी सूत्रों के संकोचन से रोमहर्ष होता है । किसी भी त्रासकारी विचार के कारण भी रोमहर्ष हो सकता है । ज्वर जो प्रायः शीतपूर्वक होते हैं उनमें रोमहर्ष सदैव मिलता है । पर जो दाहपूर्वक होते हैं उनमें भी ज्वर आवेगा ऐसा विचार ही रोमहर्ष कर दिया करता है । सुश्रुत तो ज्वर का एक अनिवार्य पूर्वरूप शीत मानता है अतः रोमहर्ष को अनिवार्यतया बतलाने का उसका भाव उचित ही कहा जा सकता है । वैसे भी शल्यसम्बन्धी प्रत्येक ज्वर शीत के साथ ( with a rigor ) होते हुए पाये जाते हैं । उससे पूर्व के लेखक शीत और रोमहर्ष इन दोनों को ही ज्वर के पूर्वरूप में ग्रहण नहीं करते । बाद के लेखक रोमहर्ष तक जाते हैं शीत तक नहीं । हारीत ने भी ज्वर के व्यक्त लक्षणों का वर्णन करते हुए रोगोका ध्यान रखा है । विनमन - शरीरांगों का विनाम या अधिक कोमल हो जाना भी ज्वर का एक पूर्वरूप है । गात्र का झुकना या पेशियों का झुकना या उनके बल की कमी होना विनमन कहलाता है । इसका मुख्य भाव शरीरस्थ अंगों के बल ( tone ) में कमी आजाना है । पेशियों में जो लोच होता है उसका अभाव विनाम कहलाता है । हमारे शरीर में ज्वरकारी विषों के निरन्तर प्रवाहित रहने से अंगों की निर्बलता मुख्यतया देखी जाती है जिसके कारण वास्तविक रूप में अन्तर आ जाता है । विनाम को हेमाद्रि ने गात्रशैथिल्य ( loss of muscular tone ) स्पष्टतः स्वीकार किया है। पिण्डिको द्वेष्टन - पिण्डिकाओं में ऐंठन होना यह लक्षण ज्वरोत्तरकालीन जितना होता है उतना ज्वर की पूर्वावस्था में नहीं, जब तक कि रोगी अत्यधिक दुर्बल न हो या रोग का आक्रमण इतना बड़ा न हो । साधारण ज्वरों में अङ्गमर्द तक देखा जाता है | हारीत का जत्व फिर अंगमर्द और फिर पिण्डिकोद्वेष्टन एक के पश्चात् एक उत्तरोत्तर बढ़ी हुई अवस्थाओं को प्रकट करने वाले विविध शब्द हैं । पिण्डलियों में लोच की कमी या विनमन होने से और एक विशेष प्रकार की थकान होने से संज्ञावह वातनाडियों के अग्रभागों में खिंचाव अधिक होने लगता है जिससे भेदन करने का सा दर्द आरम्भ हो जाता है जिसे हम हडफूटन अंगमर्द या पिण्डिकोद्वेष्टन तक कह देते हैं । १. श्रमो जडत्वं नयनप्लवः स्याद्रोमोद्गमो घुर्धुरकच जृम्भा । वैवर्णता द्वेषसशोषतास्ये ज्वरस्य च व्यक्तकलक्षणानि ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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