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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० विकृतिविज्ञान यस्य स एवम् तस्य भावः साम्राकुलाक्षिता अर्थात् अश्रुपूरितनेत्रता इसी को नयनप्लवः यानी अश्रुपूर्णनेत्रत्वम् कहते हैं। श्रम और आलस्य जो सर्वगात्र में छाया रहता है उसके कारण नेत्र का अश्रु उत्पादक व्यापार ठप्प न होकर बढ़ जाता है और नेत्रों में अश्रुओं का उदय होता है । अश्रुनिर्माण कार्य सदैव मस्तिष्क की अवसादित अवस्था का परिणाम हुआ करता है। इधर ज्वरी को सर्वप्रथम सम्पूर्ण शरीरालस्य और अवसाद से भेंट करनी पड़ रही है। इस कारण यह वातावरण नयनप्लवता के अतीव योग्य होता है। गात्रगौरव या गुरुता-अंग का भारीपन यह पूर्वरूप प्रत्येक ज्वर में देखा जा सकता है पर कफ प्रकोपजनितज्वर में इसकी अभिव्याप्ति विशेष करके पाई जाती है। शरीर के स्रोतसों, सिराओं और धमनियों में बहने वाला ज्वरकारी विष या प्रकुपित दोषसमूह शरीर में गुरुता उत्पन्न करने में समर्थ होता है । शरीरस्थ ईंधन को जलाकर बल वा शक्ति प्रदान करने वाली मशीन के पास ईंधन का ढेर लगा हुआ है और वह अन्तर्मुखी न बनकर बहिर्मुखी बनने जारही है ऐसी स्थिति में गुरुगात्रता का होना पूर्णतः स्वाभाविक है। __अरुचि-इसे वृद्ध वाग्भट ने अनन्नाभिलाषा कहा है। ज्वर आने के पूर्व भूख की इच्छा चली जाती है। पशुपक्षियों में यह लक्षण बहुत अधिक देखने में आता है। ज्वरोत्पत्ति के पूर्व ही वे चारा खाना बन्द कर देते हैं । मनुष्यों में अरुचि का होना एक स्पष्ट लक्षण है। आस्वादनक्रिया विकृत होने से और जाठराग्नि द्वारा आमाशयस्थ खाद्यपदार्थों के अयथावत् पचाने से अन्न की इच्छा होना कदापि सम्भव नहीं होता। ज्वरकारी तत्वों का सर्वाङ्गावसादक प्रभाव होता है । इसी अवसाद का परिणाम अरुचि भी हुआ करता है । यह भी कफज लक्षण है। जम्भा-अर्थात् जम्हाई का आना । यह आलस्य का प्रकट चिह्न है। अङ्गमर्द-ज्वर के पूर्व रोगी का सम्पूर्ण गात्र ऐसा हो जाता है मानो उसे कूटा गया है। सम्पूर्ण शरीर में एक प्रकार की ऐसी बेचैनी होती है जो गुरुगात्रता और सर्वाङ्गशूलता के बीच में पड़ती है । अंग-अंग में मर्दन इसे हड़फूटन या पेशीफूटन भी कहते हैं। मांसपेशियों में थकावट कारक अम्ल पदार्थों के सञ्चय के परिणामस्वरूप यह लक्षण उत्पन्न होता है। अविपाक-अन्न की अविपक्ति या न पचना अविपाक कहलाता है। आमाशय या महास्रोत में स्थित अन्न का परिपाक नहीं हुआ है यह कोई लक्षण नहीं है, परिणाम है । अरुचि या आस्यवरस्य के कारण अन्नाविपाक का अनुमान किया जा सकता है। इस दृष्टि से ही सुश्रुत ने अविपाक के ज्वर के पूर्वरूपों में स्थान नहीं दिया है। परन्तु बाद के संहिताकारों ने इसे ग्रहण किया है। चरक ने भी अविपाक को माना है । आमाशय में भोजन रखा हुआ है और उसका भारीपन रोगी अनुभव करता है। इस आधार पर अविपाक को एक पूर्व लक्षण मान लिया गया है। यथार्थता भी यही है कि अन्न का परिपाक ठीक से नहीं हो पाता । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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