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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३०७ वायुकृत ज्वर में वायु के योगवाही होने के कारण तथा पित्तकृत ज्वर में पित्त के अग्निसदृश गुण होने से सन्तापोपलब्धि मानली जा सकती है पर अग्नि का प्रतिपक्षी होने से श्लेष्मज्वर में सन्ताप वृद्धि का क्या कारण है ( कथमिव सन्तापकत्वं युक्तम् ? ) ऐसी एक शंका अरुणदत्त ने स्वयं उठा कर स्वयं ही उसका निर्मूलन भी किया है कि स्वभावादुपपन्नमेतत् स्वभाव से ही यह उत्पन्न होता है क्योंकि ज्वर का स्वभाव अचिन्त्य है इसके द्वारा अवश्य ही सन्तापोत्पत्ति होती है अरूप होने पर भी गुल्मादि में श्यावता या अरुणता की उपलब्धि होती है उसी प्रकार इसे भी समझना होगा । । जैसे कि वात अमूर्त और हेमाद्रि पक्तिस्थान से ग्रहणी को ग्रहण करता है । हमने स्वयं महास्रोत के उस भाग को जिसमें प्रत्यक्ष अन्न का परिपाक होता है और अग्नि की उपस्थिति रहती है पक्तिस्थान के रूप में लिया है । ग्रहणी पाचक पित्त या पाचकानि का प्रमुख स्थल है अतः उसी से दोष सम्बद्ध होकर ज्वरोत्पादक वातावरण करते हों तो कोई आश्चर्य नहीं है । वाग्भट ने ज्वर की सम्प्राप्ति को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है तत्र यथोक्तैः प्रकोपनविशेषैः प्रकुपिता दोषाः प्रविश्यामाशयमूष्मणा मिश्रीभूयाऽऽममनुगम्य रसस्वेदवाहीनि स्रोतांसि पिधाय पित्तं तु द्रवत्वात्तप्तमिव जलमनलमुपहत्य सर्वेऽपि च दोषाः पक्तारं स्वस्थानाद्बहिर्निरस्य सह तेन सकलमपि शरीरमभिसर्पन्तस्तत्संपर्काल्लब्धबलेन स्वेनोष्मणा नितरां देहोष्माणमेवयन्तोऽन्तस्त्रोतोमुखपिधानात् स्तम्भमादधाना बहिरपि स्वेदमपहरन्तः सर्वेन्द्रियाणि चोपतापयन्तो ज्वरमभिनिर्वर्तयन्ति । । दोष प्रकोपक विशेष पदार्थों वा कारणों से प्रकुपित दोष आमाशय में प्रविष्ट होकर ऊष्मा से मिश्रित होकर आम का अनुगमन करके रसवाही और स्वेदवाही स्रोतों में बैठ जाते हैं । पित्त द्रव है और उष्ण है जैसे उष्णोदक अग्नि पर डाल देने से अनि अपने स्थान पर तो ठण्डी हो जाती है पर उसकी ऊष्मा दिदिगन्तर में व्याप्त हो जाती है ठीक इसी प्रकार सभी प्रकुपित दोष अग्नि को अपने स्थान पर शान्त कर सम्पूर्ण शरीर के बाहरी भाग में अभिसर्पित कर देते हैं । इस ऊष्मा के सम्पर्क से बल प्राप्त कर देहोष्मा अन्तःस्रोतोमुखों के बन्द होने से स्वेद का बाहर की ओर गमन बन्द हो जाता है जिसके कारण सर्व इन्द्रियाँ और अधिक उत्तप्त हो जाती हैं और ज्वर उत्पन्न हो जाता है । यहाँ स्वेदनिर्गमन का बन्द होना और दोषप्रकोप से जाठराग्नि की प्रचलनदिशा का बाह्यमुख होना ये दो कारण ज्वरोत्पत्ति के लिए दिये गये हैं । वास्तव में दोषप्रकोप एक मुख्य घटना है स्वेदावरोध या सन्तापवृद्धि उसके परिणामरूप है । जहाँ दोषप्रकोप प्रमुख घटना नहीं है वहाँ भी ज्वरोत्पत्ति के होने में पर्याप्त काल लगता है । जिसे हम आगन्तु व्याधियों का संचयकाल कहते हैं यह वह अवस्था है जब उपसर्ग शरीर में दोषप्रकोप का वातावरण तैयार करता है जैसे ही वातावरण तैयार हो जाता है। संचयकाल समाप्त होकर ज्वरोत्पत्ति आरम्भ हो जाती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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