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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०० वकृतिविज्ञान आधुनिक काल में नेत्र के स्वच्छा ( cornea.) का प्रतिरोपण भी होने लगा है और उसके लिए नेत्राधिकोष ( Eye Bank ) का निर्माण भी हो चला है। प्राचीन काल में प्रतिरोपण की क्रिया में हमारे शल्यवेत्ता पर्याप्त अग्रणी थे। उनकी नासा सन्धान ( rhinoplasty ) की प्रक्रिया आज भी ज्यों की त्यों प्रतीचीन विज्ञानविदों ने अपना ली है। पेशियों का प्रतिरोपण भी किया जा सकता है। एक पक्षी की गृध्रसी नाडी का प्रतिरोप दूसरे पक्षी में प्रायोगिक रूप में सफलता के साथ किया जा चुका है। इसी प्रकार अन्य प्राणियों की वात नाडियों का प्रतिरोपण मनुष्य में भी करके देखा गया है और उसमें उस समय भी सफलता मिली है जब कि क्षतिग्रस्त वातनाडी को हटा कर महीनों बाद इस नाडी को लगाया गया। यही नहीं ऐसा करने पर पूर्व वात नाडी की सम्पूर्ण क्रियाएँ नव प्रति रोपित नाडी द्वारा सम्पन्न होती हुई देखी गई हैं। प्रणाली विहीन ग्रन्थियों का प्रतिरोपण करने में विद्वान् लगे हुए हैं । अण्डकोशों का प्रतिरोपण सफलतापूर्वक किया जा चुका है। परावटुकाग्रन्थियों पर भी प्रयोग सफल हो रहा है पर अन्यों के सम्बन्ध में स्थायी तौर पर कुछ भी लिखा नहीं जा सकता। कभी कभी प्रतिरोपण होने के कुछ समय पश्चात् प्रतिरोप मर जाते हैं अथवा उनकी अपुष्टि भी हो जाती है । यह विद्या अभी अधिक परिश्रम की अपेक्षा रखती है और विश्वास है कि ईसा की बीसवीं शती समाप्त होने से पूर्व ही इसका पर्याप्त विकास हो जावेगा। अतिघटन अति के लिए आङ्गल शब्द है 'मैटा' और घटन के लिए 'प्लासिया' दिया गया है। इस प्रकार अतिघटन मैटाप्लासिया हुआ। घटन के स्थान पर हमने इस पुस्तक में कहीं 'चय' का प्रयोग किया है इससे इसे 'अतिचय' भी कह सकते हैं । अतिघटन वह क्रिया है जिसके द्वारा एक प्रकार के कोशा अपना इतना परिवर्तन करते हैं कि उनका दूसरा ही प्रकार बन जाता है। एक प्रकार का अधिच्छद जब दूसरे प्रकार में परिणत हो जाता है तब वह पहले प्रकार के अधिच्छद का 'अतिघटन' या अतिचय ऐसा मानना चाहिए । परमचय ( hyperplasia ) या परम घटन और अतिघटन में पर्याप्त भेद है। परमघटन या परमचय में कोशा की वृद्धि डटकर होती है उसका प्रकार नहीं बदलता तथा अतिघटन में वह अपनी सीमा को पार करता हुआ अतिघटित हो जाता है जिससे उसका प्रकार ही बदल जाता है। दोनों का प्रयोग इस ग्रन्थ में खुलकर हुआ है इस कारण इनका भेद जान लेना परमावश्यक है। जीर्ण व्रणशोथात्मक अवस्थाओं में हम देखते हैं कि एक अंग विशेष को रोग ने ऐसा जकड़ लिया है कि उसके कार्य करने का स्वाभाविक वातावरण बिल्कुल ही समाप्त हो जाता है । इस नये वातावरण में जब किसी ऊति विशेष को कार्य करना पड़ता है तो अवश्य ही उसके घटक कोशाओं में परिवर्तन होने लगते हैं और एक ऊति दूसरे प्रकार में बदल जाती है । इसका एक उदाहरण हम बस्ति के अधिच्छद का देते हैं। बस्ति का प्रकृत अधिच्छद अन्तर्वर्तीय कोशाओं ( transitional cells) के द्वारा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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