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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनर्निर्माण २६५ बन जाता है। व्रणशोथ खूब देखा जाता है और विक्षत बहुत बड़ा दिखाई देता है पर जब वह सितकोशा एकन्यष्टिकोशा और प्रोभूजिनांशीय किण्व अपना कार्य करके सम्पूर्ण आतञ्चित पदार्थ का आत्मपाचन और भक्षण कर लेते हैं तो फुफ्फुस के सभी वायुकोष खुल जाते हैं और फुफ्फुस की स्वाभाविक क्रिया पुनः चल पड़ती है। उपशम का एक उदाहरण गङ्गा की बाढ़ के समय घाटों की स्थिति से दे सकते हैं। जब बाढ़ आती है तो घाटों के किनारे के सब कोठे कोठरियाँ पानी और बालू से भर जाते हैं। पर जब बाढ़ उतर जाती है तो ज्यों के त्यों बने हुए देखे जाते हैं। फुफ्फुसों में श्वसनक होने के कारण रोग के लक्षण कितने ही उग्र दिखलाई दें परन्तु फुफ्फुस की अति में विक्षत बनते नहीं या बहुत कम बनते हैं। इस कारण यहाँ उपशम के द्वारा रोपण क्रिया सम्पन्न होती है। यदि किसी कारण से आतञ्चपाचन का कार्य करने वाले कोशा और किण्व अपना कार्य न करें तो वहाँ यह सम्भव नहीं कि रोपण उपशमन द्वारा हो। उस अवस्था में वहाँ तन्तुल्कर्ष हो सकता है व्रणवस्तु बन सकती है और फुफ्फुस की स्वाभाविक क्रियाशक्ति में कमी आ सकती है। अन्य अत्युम जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न श्वसनक में उपशम क्रिया न होकर तन्तूत्कर्ष देखा जाता है। फुफ्फुस गोलाण्विक श्वसनक में भी जब सितकोशीय भरमार नहीं हो पाती और स्राव आदि को वहाँ से हटाया नहीं जाता तो वहाँ उपशमासिद्धि ( failure of resolution ) हो जाती है। जिसके कारण तन्त्विमत् स्राव का समङ्गीकरण हो जाता है जिसके पश्चात् तन्तूत्कर्ष एवं व्रणवस्तु निर्माण कार्य चलता है। रोपणं की क्रिया के सम्बन्ध में कई शब्दों का व्यवहार हुआ है। पर इन सब के व्यवहृत होने पर भी रोपण की मुख्य क्रिया दो ही प्रकार से सम्पन्न होती हुई दिखाई देती है। एक प्रकार तो यह है कि क्षतिग्रस्त ऊति अपने स्वाभाविक रूप में उत्पन्न हो जाय इसे विशिष्ट कोशाओं का प्रगुणित पुनर्जनन कह सकते हैं। तथा दूसरा प्रकार यह है कि क्षतिग्रस्त ऊति का स्थान तान्तव अति ले ले। इसे तन्तूत्कर्ष कहा जाता है। अस्थिरोपण ___ यद्यपि हमने ऊपर कई प्रकार से रोपण का वर्णन किया है परन्तु रोपण जो मृदुल उतियों में होता है तथा जो कठिन उतियों में देखा जाता है इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। यद्यपि क्रिया दोनों में एक ही सिद्धान्त का अनुसरण करती है परन्तु यहाँ चूर्णीयन ( calcification ) की एक विशिष्ट क्रिया होती है जिसे स्पष्ट करना परमावश्यक है। ___ जब कोई अस्थिभग्न हो जाता है तो हम वहाँ यह देखते हैं कि हड्डी के ही ऊपर चढ़ी पर्यस्थ (periosteum ) क्षत-विक्षत हो जाती है । कहीं तो वह हड्डी से बिल्कुल उखड़ जाती है, कहीं टूटे भाग के आगे भी उसका कुछ भाग लगा रहता है, कहीं वह कट जाती है और कहीं वह टूट जाती है। टूटे हुए भाग के बीच की रक्तवाहिनियाँ टूट-फूट जाती हैं। दोनों के बीच में रक्त के आतञ्च बन जाते हैं। यदि For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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