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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ वकृतिविज्ञान करण ( organisation ) की क्रिया चलती है। लसाभस्यूनों में जहाँ तन्त्विमत्स्राव होते हैं, किसी अंग में स्थित ऋणास्त्र, एवं किसी वाहिनी में स्थित घनास्र इन सब में भी रोपण का प्रकार समङ्गीकरण द्वारा ही सम्पन्न होता है । समगीकरण की क्रिया में ऊति कोशाओं का प्रगुणन तथा अपद्रव्य का अपहरण ये दो क्रियाएँ-जो रोपण में सर्वत्र प्रयुक्त होती हैं-ही देखी जाती हैं । सर्व प्रथम कोशाओं की मृत्यु के कारण विक्षत ऊति में प्रक्षोभ होने लगता है प्रक्षोभ व्रणशोथ को आमन्त्रित करता है। मलबा (अपद्रव्य) के हरणार्थ वहाँ पर आत्मपाचन और भक्षिकोशोत्कर्ष नामक क्रियाएँ चल पड़ती हैं। जिस प्रकार अन्यत्र व्रणशोथात्मक प्रतिक्रियाएँ होती हैं ठीक वैसी ही यहाँ भी देखी जाती हैं। भतिकोशा भी उसी प्रकार के होते हैं। जिस प्रकार अन्यत्र नव वाहिन्य कुडमल दृष्टिगोचर होते हैं यहाँ भी देखे जाते हैं। यहाँ भी तन्तुरुह बन कर श्लेषजनीय तान्तव ऊति में परिणत होते और व्रणवस्तु बनती है। ___ तन्त्विमत् स्राव जिन लसाभ उतियों में होता है वहाँ अन्तश्छद से ही कणन या रोहण ऊति बनना प्रारम्भ कर देती है तथा भक्षिकोशा तन्त्वि को उठा कर ले जाते हैं। उसके पश्चात् उस सम्पूर्ण क्षेत्र में अन्तश्छद ( endothelium ) उत्पन्न हो जाता है जैसे कि त्वचा किसी धरातलीय व्रण के ऊपर उग आती है । परन्तु अधिकतर तो स्यून ( sac ) के प्राचीरस्तर और अन्तस्थस्तर ( parietal & visceral layer ) क्षतिग्रस्त हो जाते हैं जिसके कारण दोनों स्तरों पर कणन अति बनना प्रारम्भ कर देती है जो आगे चलकर एक जगह मिल जाती है और अभिलाग ( adhesion ) उत्पन्न कर देती है। ये अभिलाग शनैः शनैः तान्तव बन जाते हैं जिससे स्थायी हो जाते हैं। सन्धियों में हम बहुधा देखते हैं कि ऐसे ही स्थायी अभिलागों के कारण उनकी गतियाँ रुक जाती हैं और वे तान्तव गतिस्थैर्य (fibrous ankylosis ) के कारण अपने स्वाभाविक कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। जब यही परिहृत् (pericardium) में होता है तो वहाँ संसक्त परिहृत्पाक ( adherent pericarditis ) देखने को मिलती है। फुफ्फुसच्छद (pleura) के दोनों स्तरों में तान्तव पट्ट ( fibrous bands ) मृत्यूत्तर परीक्षाओं में इसी कारण प्रगट होते हैं । उदरच्छद में जब ये अभिलाग बन जाते हैं तो आन्त्र के अनेक पाश ( loops ) संकुचित हो जाते हैं या उनका कण्ठ पाशन ( strangulation ) हो जाता है। __ वाहिनियों में जहाँ धनास बन जाते हैं समङ्गीकरण की क्रिया विशिष्ट प्रकार से सम्पन्न होती है। यदि घनास्त्र ने वाहिनी का सम्पूर्ण मुख आवृत कर लिया हो और रक्त के आवागमन में बाधा पड़ रही हो तो इस क्रिया द्वारा घनास्र ( thrombus ) के बीच से एक नवीन सुरङ्ग का निर्माण होने लगता है इसे पुनःसुरंगीकरण (recanalisation ) कहते हैं। इस विधि से वाहिनी का मुख अवश्य संकुचित हो जाता है परन्तु रक्त के आवागमन में बाधा कोई नहीं पड़ पाती। जब वाहिनी में या हृदय के अलिन्दादि में यह घनास्र बन जाता है और ऐसा बनता है कि रक्त संवहन क्रिया यथापूर्व चलती रहे तो उसके ऊपर अन्तश्छद आवृत हो जाता है। कहीं कहीं For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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