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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० विकृतिविज्ञान जाती है और उसे बिना सावधानी पूर्वक भिगोये जल्दी में छुड़ा दिया जाता है तो ऐसा रक्तस्राव होता हुआ देखा जाता है । कणन या रोहण ऊति का वर्ण सदैव गहरा लाल होता है और उसमें रक्तास्रावी प्रवृत्ति देखी जाती है । पाता चाहे त्वचा तन्तुरूहों और रक्तवाहिनियों के बीच में व्रणशोधकारी कोशा भरे रहते हैं जिनमें बहुन्यष्टि, एकन्यष्टि, लसीकोशा और प्ररसकोशा सभी मिलते हैं । इन व्रणशोथात्मक कोशाओं का मुख्य कार्य व्रण से उपसर्ग को दूर करना है । दूसरा इनका कार्य अपद्रव्य को हराना है । कणन ऊति उपसर्ग के प्रतिरोध करने में बहुत भाग लेती है इसी कारण इसके नीचे की ऊतियाँ उसके ऊपर के भाग में स्थित उपसर्ग से बची रहती हैं। यह एक प्रकार से रक्षक रोध ( protective barrier ) का कार्य करती है । यही कारण है कि यदि एक व्रण कणन ऊति से भर जावे तो फिर रोगी रोगाणुओं से भी बच जाता है और रोगाणुओं के विषों का प्रचूषण भी नहीं हो में व्रण रोपित न हो पाया हो । इसके अनेक प्रमाण हैं । यदि किसी घाव में जब तक कि कणन ऊति न बन पाई हो धनुस्तम्भकारी विष का प्रवेश किया जावे तो प्राणी शीघ्र ही धनुस्तम्भ के चक्कर में आ जाता है पर यदि वहाँ कणन ऊति का निर्माण हो गया है और तब धनुस्तम्भकारी विष का लेप किया गया है तो फिर धनुस्तम्भ होना पर्याप्त कठिन हो जाता है। दूसरा उदाहरण ग्रीन ने पट लेप का दिया है । किसी व्रण पर जब पट लेप ( plaster ) लगा दिया जावे तो सम्पूर्ण दुर्गन्धपूर्ण पूयादि को वह सोखकर अपने में ले लेता है। अब धीरे धीरे कणन ऊति बननी प्रारम्भ होती है और पट लेप कितना ही दुर्गन्धित क्यों न हो उसका व्रण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथा धीरे धीरे वह पूर्णतः रोपित हो जाता है । कि वहाँ नित्य प्रति अनेक आधुनिक युद्ध ने हमें एक अस्पतालों की प्राचीन I हम प्रायः साधारण कोटि के अस्पतालों में देखते हैं कष्ट देकर रोगियों के व्रणों का स्वच्छन किया जाता है । शिक्षा यह दी है कि व्रण को ठीक करने का सर्वोत्तम उपाय पद्धति नहीं है | बल्कि यदि व्रणयुक्त अंग को पूर्ण विश्राम दिया जाय और एक बार व्रण को स्वच्छ करके छोड़ दिया जावे तो वह अतिशीघ्र ठीक हो जाता है । माइल्स आदि विद्वानों का भी यह मत है कि पुनः पुनः व्रण स्वच्छन यदि पूर्ण शुद्धतापूर्वक न किया गया तो पुनः पुनः व्रण को उपसर्गान्वित कर देता है । पर हम इस मत को अमान्य करते हैं। क्योंकि यदि व्रण में स्वस्थ कणन ऊति उत्पन्न हो चुकी है तो कोई कारण नहीं कि उसके स्वच्छन से पुनः व्रण में उपसर्ग प्रवेश कर जावे । यदि स्वच्छन कार्य करते समय इस कणन ऊति पर आघात हो गया तो यह नितान्त सम्भव है कि पुनरुपसर्ग हो जाय अन्यथा यह नहीं हो सकता । पर एक बात महत्त्व की यह है कि व्रणशोधन के लिए जो रासानिक द्रव्य प्रयुक्त होते हैं उनमें प्रांगविकाम्ल ( carbolic acid ), पारदिक नीरेय ( perchloride of mercury ) आदि बहुत प्रक्षोभक होते हैं और इनका व्रण द्वारा प्रचूषण बहुत सम्भव है । जिसके कारण नवीन कोशा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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