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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८. विकृतिविज्ञान की बाह्य वातावरण से रक्षा करता है तथा व्रण के दोनों ओष्ठों को जोड़े रहता है। पाटन के कारण त्वचा के बहुत से कोशा कट जाते हैं और भीतर के बहुत से अन्य ऊतियों के कोशा क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और वे नष्ट हो जाते हैं। कोशाओं की मृत्यु के कारण उस स्थान पर हलकी सी व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया चल पड़ती है तथा आघातप्राप्त ऊति में भक्षकायाणूत्कर्ष (phagocytosis) होने लगता है जो वहाँ स्थित तन्त्वि और अपद्रव्य को खतम कर देता है। यह क्रिया पाटन के पश्चात् गुप्त काल में आगत सितकोशाओं के द्वारा सम्पन्न होती है। जब उनकी सचल ( motile ) भक्ष कायाणुकीय अवस्था समाप्त हो जाती है तब कुछ प्रोतिकोशा उनमें से भिन्नित होकर तन्तुरहों ( fibroblasts ) में परिणत हो जाते हैं। ये तन्तुरुह अण्डाकार न्यष्टियों से युक्त सिगार के आकार के होते हैं। रंगे जाने पर उनकी न्यष्टियों पर खूब रंग चढ़ता है। इन तन्तुरूहों का प्ररस अपूर्ण भिनित होकर वयस्क तन्तुकोशा के तन्तुक प्रवर्ध (fibrillar process of an adult fibrocyte ) का रूप धारण कर लेता है। व्रणों के ओष्ठों पर स्थित संयोजी ऊति के कुछ कोशाओं में प्रगुणन भी होता है पर वह बहुत कम। समीपस्थ रक्तवाहिनियों से व्रण के चारों ओर से नवीन केशिकाएँ (केशाल)निकल पड़ती हैं। वे अन्तश्छदीय कोशाओं के विभजन से बनती हैं और चर्म के समानान्तर दण्डसम ( rod-like ) रहती हैं। ये केशाल व्रण को भर लेते हैं और एक वाहिनीय जाल की रचना करते हैं जो तन्तुरुहिक ऊतियों का पोषण करता है। धीरे धीरे व्रण के दोनों ओष्ठ इस नवीन वाहिनीमत् तान्तव ऊति के द्वारा एक दूसरे से बाँध दिये जाते हैं तथा व्रण का धरातल त्वचा के अधिच्छद से भर जाता है जो किनारों से प्रचलन करके जाता है। नैदानिक दृष्टि से इतना होने का अर्थ व्रण का रोपण है। इस समय व्रण लाल वर्ण का त्वचा से थोड़ा उठा हुआ होता है। इसे सुश्रुतोक्त रोहत व्रण समझना चाहिएकपोतवर्णप्रतिमा यस्यान्ताः क्लेदवर्जिताः । स्थिराश्चिपिटिकावन्तो रोहतीति तमादिशेत् ।। आगे चलकर तन्तुरुह तन्तुकोशाओं में परिणत हो जाते हैं उनका प्ररस भिन्नित होकर अनेक तन्तुक बना देता है और श्लेषजन ( collagen) वहाँ उत्पन्न हो जाती है उनकी न्यष्टियाँ लम्बी तथा पतली हो जाती हैं उनके तन्तुक दूसरे तन्तुकों में अन्तर्वयन (interlace ) करते हैं जिसके कारण एक नमत जाल ( felted net work ) बन जाता है। फिर वे तन्तुक धीरे धीरे कई सप्ताहों में संकुचित होना प्रारम्भ करते हैं। संकोच के कारण समीपस्थ वाहिनियाँ भी दब जाती हैं जिससे उनकी रक्तपूर्ति भी कम हो जाती है और उनमें उतनी लाली नहीं रहती बल्कि उनका वर्ण पाण्डुर श्वेत हो जाता है और अन्त में त्वचा से कुछ नीची सतह वाली व्रणवस्तु वहाँ बन जाती है । इसे हम सम्यगूढावस्था कहते हैं रूढवानमग्रन्थिमशूनमरुजं व्रणम् । त्वक्सवर्ण समतलं सम्यगूढं विनिर्दिशेत् ॥ यहाँ सूजन रहित, शूलरहित, त्वचा के वर्ण वाले समतल वाले भरे हुए व्रण को For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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