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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ विकृतिविज्ञान भी कुछ ऊतियों की रचना जटिल है एवं कुछ की साधारण । जटिल रचना वाली ऊतियों का यदि एक बार नाश हो जाय तो फिर वह ज्यों की त्यों पुनर्निर्मित नहीं होतीं । साधारण रचना वाली ऊतियों में विकार होने के पश्चात् उनकी पुनः रचना देखी जा सकती है । पुनः रचना या जीर्णोद्वार का प्रमुख अभिप्राय जो यह रहता है कि जिस ऊति के द्वारा जो कार्य होता था वहीं पुनः जारी हो जाय ऐसा जटिल रचनाओं में अपूर्ण रह जाता है । पूर्वस्थित ऊति ज्यों की त्यों बनती हुई इसी कारण विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न मात्राओं में देखी जाती है । जब किसी ऊति में आघात पहुँच जाता है तो तुरत ही पुनर्निर्माण का कार्य प्रारम्भ होता हुआ नहीं देखा जाता अपि तु कुछ काल तक वहाँ कोई क्रिया नहीं होती हुई दिखाई देती है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह समय पुनः रचना की आवश्यक तैयारी में व्यतीत होता है फिर तन्त्वि-आतंच का विलीनीकरण, रक्तागम और कोशाभक्षण की क्रिया सरक्त ऊतियों ( vascularised tissues ) में प्रारम्भ होती है । कोशाओं में आघात होने पर उनके विनष्ट होने के कारण एक प्रकार का पदार्थ उत्पन्न होता है वैसा ही पदार्थ सितकोशाओं से भी बनता है । इस पदार्थ का गुण वृद्धि वर्धन (growth stimulation ) होता है इन्हें कैरल के पोषक ( Carrel's trephones ) कहते हैं । इनका कार्य स्थानीय कोशाओं को उत्तेजित करके उनका प्रगुणन (proliferation) करना होता है । जब यह गुप्तकाल (latent period ) समाप्त हो जाता है तो फिर पुनर्निर्माण का कार्य पर्याप्त वेग के साथ चल देता है यह वेग तब तक चलता रहता है जब तक कि पुनर्निर्माण का कार्य समाप्त नहीं हो जाता । इस समाप्तिकाल में इसकी गति फिर मन्द हो जाती है। 1 किसी ऊति के पुनर्निर्माण में कोशाओं के दो कार्य देखे जा सकते हैं । एक तो यह कि उनका प्रगुणन हो और दूसरा यह कि वे एक स्थान से चलकर आघात स्थल तक पहुँच कर सक्रिय सहायता करें । कोशा प्रगुणन निर्माण में उतना अधिक कार्य नहीं करता जितना कि कोशागमन करता है । हम एक अस्थिभग्न के रोगी के टूटे हुए हड्डी के किनारों पर आये हुए अस्थिरुहों (osteoblasts ) को देख सकते हैं । आघातग्रस्त स्थलों में सितकोशाओं का आगमन और उनके बाद फिर प्रोतिकोशाओं ( histiooytes ) का पहुँचना हमें कोशाप्रचलन ( cell migration ) के महत्व को सिद्ध कर देता है । वातनाडियों के पुनर्निर्माण में अक्षरम्भ का प्रगुणन नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वयं एक कोशा का प्रवर्ध मात्र है जो स्वयं खण्डित होकर नवकोशा निर्माण नहीं कर सकता । जब ये अक्षरम्भ टूट जाते हैं तो फिर इनका सम्मेलन करने के लिए उनसे प्ररस ( protoplasm ) निकलता है और प्ररस भी एक गति करता है, प्रचलन करता है और अक्षरम्भ को जोड़ देता है । अतः कोशाओं की गति या प्रचलन का पुनर्निर्माण में कोशाप्रगुणन से बढ़कर महत्त्व है रहना होगा । इसे समझते कोशाप्रचलन का प्रत्यक्ष ज्ञान हम किसी शशक की कनीनिका को किसी प्रकार For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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