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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० विकृतिविज्ञान परिवर्तन ( putrefactive changes ) शनैः शनैः होते हैं । इसके कारण विषरक्तता ( toxaemia ) की वृद्धि भी शनैः शनैः ही हुआ करता है । उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि- १. शुष्क कोथ स्थानिक होता है, २. उसके चारों ओर स्वस्थ ऊति का वलय बना होता है तथा ३. शस्त्रकर्म के द्वारा या स्वतः कोथग्रस्त भाग पृथक् किया जाता है या हो जाता है । आर्द्रकोथ इसमें सिराओं द्वारा अंग विशेष से रक्त का हृदय की ओर ढोया जाना पूर्णतः रुक जाता है। रक्त की उस स्थान में आमद तो होती है पर निकास नहीं होता । जब आन्न्रवृद्धि ( hernia ) का कण्ठपाशन ( strangulation ) हो जाता है या जब आन्त्रान्त्रप्रवेश ( intussusception ) में तनुप्राचीरी ( thin-walled ) सिराएँ सिकुड़ जाती हैं तो धमनी द्वारा आगत रक्त किसी भी प्रकार निर्गत न हो सकने से गम्भीर अवस्था उत्पन्न हो जाती है । धमनी प्रारम्भ में निज कार्य करती रहती है परन्तु आगे चलकर अवरुद्ध हो जाती है । केशिकाओं ( capillaries ) में लगातार रक्त आते रहने से पीडन बढ़ जाता है । sar ause रक्तस्थैर्य होने से शुक्कियुक्त तरल केशिकाप्राचीरों से छन छन कर धातुओं में भरता चलता है । साथ ही रक्तस्थैर्य के कारण अजारकता (anoxaemia) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है अतः केशिकीय अन्तश्छद और अधिक दुर्बल एवं नष्ट हो जाता है और ऊति आशून ( turgid ) हो जाती है । कभी कभी आघात के कारण धमनी और सिरा दोनों के दब जाने से भी कोथ होता है । इस कोथ में सिरा और धमनी दोनों के ही क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ता है। रक्त के सिरा द्वारा बाहर निर्गत न होने से वहाँ पर शोथ हो जाता है और लालकण अन्तश्छद को भेदकर धातुओं में पहुँच जाते हैं वहाँ उनका रुधिराशन ( haemolysis ) होकर एक लाल घोल बन जाता है जो धातु के कण कण में रम कर उसे लाल कर देता है वही आगे चलकर लोह शुल्बेय ( sulphide of iron ) का स्वरूप ले लेता है । वह अंग जहाँ कोथ होता है शोथयुक्त नीला सा हो जाता है और उसके ऊपर लाल रंग के फफोले पड़ जाते हैं I इस प्रकार तरल से भरी हुई ऊतियों में उपसर्गकारी जीवाणु दिन दूनी और रात चौगुनी वृद्धि करते हैं । उस तरल से पोषण पाकर वे बहुत पनपते हैं । इन जीणाणुओं में कोथोत्पादक जीवाणु बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। वे उदजन शुल्बेय, (H2S) तिक्ताति, भूयाति, प्रांगार द्विजारेय नामक तिक्ताति वातियों (गैसों) का निर्माण करते हैं जिसके कारण दबाने से करकराहट ( emphysematous crackling ) होती है । वहाँ का रंग लाल से बभ्रु ( स्लेटी ) और फिर काला हो जाता है । ऊतियाँ मृदु होकर द्रवीभूत हो जाती हैं तथा अत्यन्त तीक्ष्ण दुर्गन्ध उस अंग से प्रकट होने लगती है । दुर्गन्ध बिना उपसर्गकारी जीवाणुओं के प्रवेश के कभी उत्पन्न नहीं होती यह तथ्य भी सदैव स्मरणीय रखना चाहिए । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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