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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विहास २५३ नहीं होता पर आगे चल कर जब केशिकाओं का मुख सङ्कुचित हो जाता है तो रक्त की कमी हो जाने से तथा मण्डाभ पदार्थ के स्वयं भार डालने से नालिकीय अधिच्छद अपोषित एवं स्नैहिक विहास से परिपूर्ण हो जाता है । इस दशा में नालिकाएँ मेघाभ एवं स्नैहिक कोशाओं से तन जाती हैं तथा अन्तर्नालिकीय ऊति में बहुत से गोल कोशाओं ( round cells ) की भरमार हो जाती है । इसे मण्डाभ वृक्कोत्कर्ष ( amyloid nephrosis ) कहते है । आगे चल कर वहाँ तन्तूत्कर्ष ( fibrosis ) होता है। आगे चल कर जब नालिकाएँ तिरोहित हो जाती हैं तब वह भाग कड़ा होकर सिकुड़ जाता है । स्थूलदृष्ट्या, विहास के साथ साथ वृक्क का स्वरूप भी बदल जाता है। ज्यों ज्यों विहास बढ़ता है त्यों त्यों वृक्क बाह्यक ( renal cortex ) भी प्रवृद्ध होता चला जाता है । उसका धरातल मसृण और प्रावर सरलता से पृथक किया जा सकता है । प्रवृद्ध बाह्य श्वेत, रक्तहीन, पारभासी और सिक्थ जैसा हो जाता है । वह कड़ा तथा दृढ़ भी हो जाता है। जब उस पर जम्बुकी ( आयोडीन ) का प्रयोग करते हैं तो वृक्काणु बभ्रुबिन्दुकों ( brown dots ) या बभ्रुरेखाओं ( brown streaks ) सदृश दिखते हैं। नालिकाओं के अधिच्छद में स्नैहिक परिवर्तन होने के कारण बाह्यक में सूक्ष्म पीत - श्वेत- पारादर्श रेखाएँ भी मिलती हैं। आगे चल कर रक्त के कम पहुँचने से नालिकाओं का स्थान तान्तव ऊति ले लेती है जिसके कारण प्रावर शेष वृक्क के साथ अभिलग्न हो जाता है और वृक्कतल सिकुड़ जाता है । कभी कभी वृक्कशोथ के कारण खूब फूल भी जाता है । यकृत् का मण्डाभ विहास (Amyloid Degeneration of the Liver) rudraष्टा यकृत् के मध्यम भाग में सर्वप्रथम याकृत् धमनी की केशालों और धमनिकाओं की प्राचीरों में विकृति होना प्रारम्भ होती है। कंशिका भाजिसिराकेशालों में यह विकृति बहुत कम मिलती है । वहाँ से समापस्थ अन्तर्खण्डिकीय ( interlobular ) संयोजी ऊति में मण्डाभ पदार्थ का समय होने लगता है और वह ऊति समांग स्तम्भों ( homogeneous columns) में फूलने लगती है जो शल्कल ( flakes) में विभक्त हो जाते हैं । ध्यानपूर्वक देखने से मण्डाभ पदार्थ इतस्ततः अपोषित सवर्ण यकृत् कोशाएँ भी दिखाई पड़ती हैं । परिसरीय याकृत् कोशाओं में स्नेह भर जाता है । और अधिक रोग बढ़ने पर ऊति समांग हो जाती है खण्डिकाओं का विभजन मिट जाता है । पर कहीं कहीं उनकी संख्या अधिक हो जाती है वे पृथक् पृथक मिलते हैं तथा वर्ण में स्नेह के कारण वे पारादर्श आपीतश्वेत वर्ण के होते हैं । फिरङ्गार्बुद ( gumma ) के समीप एक स्थानीय परिवर्तन के रूप में भी यकृत् में मण्डाभ विहास देखा जा सकता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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