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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० विकृतिविज्ञान प्रयोगों से ज्ञात होता है कि यह विहास प्लीहोच्छेद ( spleneotomy ) के पश्चात् देखने को नहीं मिलता। जो इसका प्रमाण है कि इस पदार्थ की जननी स्वयं प्लीहा ही है। इस विहास में एक दृढ़, वर्णहीन, पारदर्श पदार्थ जिसे वपाभ ( lardacein) या मण्डाभ पदार्थ ( amyloid substance ) कहते हैं प्रगट होता है। यदि इस पदार्थ को मुख द्वारा सेवन कराया जावे तो इसका पाचन करने में आमाशय सर्वथा असमर्थ रहता है, यद्यपि आन्त्र इसे पचा डालती हैं तथा वैसे यह कई अभिरञ्जन प्रतिक्रियाएँ ( staining reaction ) देता है। इसका सूत्र प्रोभूजिनों के ही सदृश होता है और इसका निर्माण प्रोभूजिन-मेदाभ चयापचय में गड़बड़ होने से ही होता है । इसकी उत्पत्ति के निम्न कारण बतलाये जाते हैं:(१) दीर्घित पूयन ( prolonged suppuration ), (२) यक्ष्मा-यह फौफ्फुसिक ( pulmonary ), अस्थि ( bone ), सन्धि (joint ) या वृक्क (kidney ) की यक्ष्मा में प्रायः देखा जाता है। (३) पूयोरस् ( empyema ), (४) दूषित संयुक्त अस्थिभग्न ( septic: compound fracture ) जिनमें सततपूयीभवन रहा करता है। (५) ग्रहणी (amoebic dysentery), (६) किरणकवकता (actinomycosis), (७) अनुतीव्र वृक्कपाक ( subacute nephritis), (८) फिरंग की तृतीयावस्था ( tertiary syphilis ) जो भी आंशिक पूयीभवन के उदाहरण हैं। (९) सरलेन्य (तारपीन ) ( terpentine ), वृक्ति (renin ), अथवा विषि (toxins ) के सूच्यानिःक्षेप के कारण होने वाले पूयन में भी यह देखा जाता है। (१०) एक खरगोश को हारातुकिलाटीय (सोडियम कैसीनेट) के सूच्यानिःक्षेप देने पर ज्ञात हुआ कि इसकी प्लीहा मण्डाभ विहास से पीड़ित हो गई तथा वहाँसे यह विह्रास अन्य अङ्गने में भी फैला । ___यदि दीर्घित पूयन से परिपीड़ित रुग्णों को पैत्तव तथा विमेदाभयुक्त आहार सेवन कराया जावे तो फिर इस विहास के होने की कोई सम्भावना नहीं देखी जाती। यह इस बात का द्योतक है कि वास्तव में इन द्रव्यों के पूयद्वारा सतत निर्गमन के परिणामस्वरूप तथा आहार द्वारा उनकी यथेष्ट पूर्ति न की जाने के कारण यह प्रारम्भ होता है। __मण्डाभ पदार्थ के इस उत्कर्ष का निरीक्षण करने से ज्ञात होता है कि यह एक. सार्वदेहिक अवस्था (generalised condition ) है जो हमारे शरीर के किसी भी अङ्ग वा प्रत्यङ्ग की संयोजी ऊति में पाई जा सकती है। यह अवस्था विशेषतया प्लीहा, यकृत् , वृक्क, आन्त्र और लसग्रन्थियों में तथा साधारणतया आमाशय, सर्व किण्वी, अधिवृक्कपाक, कण्ठ, अन्नप्रणाली, बस्ति, पुरःस्थ, प्रजननाङ्ग, मस्तिष्क की कलाएँ, सुषुम्नाकाण्ड की कलाएँ तथा पेशियों में पाई जा सकती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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