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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ विकृतिविज्ञान ५. कोशाशरीर में स्नेह-विन्दु प्रकट होते हैं। ६. अन्त में कोशाप्राचीर नष्ट हो जाती है और एक सम, उषसिरंज्य (eosinophilic ) कणयुक्त पदार्थ मात्र बचा रहता है जो स्वयं के विकर ( enzyme ). द्वारा खा लिया जाता है। उपरोक्त परिवर्तन अन्तरालित योजी ऊति ( interstitial connective ) की अपेक्षा अधिछदीय उति ( epithelial tissue ) में अधिक द्रुत वेग से होता है। ___उतिमृत्यु के प्रकार विभिन्न आधुनिक ग्रन्थों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि कुल ६ प्रकार की ऊतिमृत्यु का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है: (१) नाभ्यनाश ( Focal Nercosis ) इस प्रकार की ऊतिमृत्यु में किसी ऊति के एक स्थान के एक कोशासमूह का पूर्ण संहार हो जाता है। उसी ऊति में स्थित विकर उस मृत कोशासमूह को पचा डालते हैं तथा शेष जो अवशिष्टांश रहता है उसे भक्षिकोशा ( phagocytes ) वहाँ से हटाकर ले जाते हैं तथा उसके स्थान पर या तो तान्तव ऊति का या उसी विशिष्ट धातु के कोशासमूह का पुनर्निर्माण हो जाता है। नाभ्यमृत्यु आन्त्रिक ज्वर, पृषज्ज्वर (टायफस ज्वर ), कण्ठरोहिणी, फुफ्फुसपाक तथा गर्भाङ्ग विषमयता ( eclampsia ) में देखा जाता है। इसका विशेष प्रभाव शरीर की ग्रन्थियों अथवा हृदय पर पड़ता हुआ भी देखा जाता है। (२) आतंचिन् नाश ( Coagulative Necrosis ) इसका प्रमुख उदाहरण ऋणास्र ( infarct ) है। जब किसी भी कारण से धातुगामी केशाल की अन्तश्छद को क्षति पहुँचती है तब प्राचीर दुर्बल होकर रक्तरस को केशालों के बाहर फेंक देती है वहाँ पर कोशाओं की मृत्यु होने लगती है। मृत्युके कारण धातु से आतञ्चि ( coagulin ) नामक पदार्थ निकल कर तन्त्विजन ( fibrinogen) नामक पदार्थ से मिल कर आतञ्चन कर देता है। इसी से प्रारम्भ में ऋणास्र का रङ्ग लाल रहता है। धीरे धीरे उसके प्रचूषित हो जाने पर रङ्ग श्वेत हो जाता है। लाल वा श्वेत ऋणास्र बहुत प्रसिद्ध हैं। (३) द्रावणनाश ( Colliquative Necrosis) ____ यह आतश्चिन् मृत्यु से आगे की अवस्था है। जिसमें श्वेत वा लाल रंग के ऋणास्त्र के बनने तक के वर्णन के आगे का वर्णन किया गया है। इसमें लाल वा श्वेत ऋणास्र मृदु या द्रवीभूत हो जाता है। इसका प्राथमिक स्वरूप मस्तिष्क की चैत (या वातिक) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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