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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ विकृतिविज्ञान हैं। पर अण्वीक्षतया देखने पर जो चित्र दिखलाई देता है वह सुषुम्नाधूसरद्रव्यपाक के समान ही होता है। व्रणशोथात्मक तथा विहासात्मक सम्पूर्ण परिवर्तन अधिकतर सुषुम्नाशीर्षक में मिलते हैं थोड़े से सुषुम्नाकाण्ड में होते हैं तथा मस्तिष्क बाह्यक में सबसे कम देखे जाते हैं । लसीकोशाओं के परिवाहिन्य मणिबन्ध भी यथावत् मिलते हैं । वातनाडीकोशाओं में वर्णहास से लेकर पूर्णनाश तक विनाश के सब लक्षण मिलते हैं। मिटते हुए कोशाओं को नाडीभक्षक कोशा घेरे रहते हैं। जिन नाडियों द्वारा विषाणु केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान तक जाता है उनमें भी विह्रासात्मक लक्षण देखने को मिलते हैं। सबसे अधिक स्पष्ट और एक मात्र घटना जो इस रोग में देखी जाती है वह है आलर्क पिण्डों ( Negri bodies) की उपस्थिति । ये विचित्र प्रकार की रचनाएँ हैं जो उपधानिका ( hippocampus major ), धमिल्लक के कलसिका कन्दों के प्रगण्डों (ganglion ) के कोशाप्ररस ( cytoplasm ) में मुख्यतः तथा सुषुम्नाशीर्षक तथा अन्यत्र गौणतः मिलते हैं। इन पिण्डों में एक प्रकार का अम्लरञ्ज्य (acidophilic ) पदार्थ रहता है जिसके मध्य में न्यष्टि की तरह एक पीठरंज्य (basophil) द्रव्य भरा रहता है । जब उचित अभिरंजन किया जाता है तो एक लाल रंग के पिण्ड के नीले वर्ण का केन्द्र ऐसा चित्र उपस्थित होता है। ये आलर्क पिण्ड विहासात्मक उत्पाद (degenerative products ) मात्र हैं। अम्लरंज्य पदार्थ चेतातन्तुकों (neurofibrillae) के विद्वास से बनता है तथा पीठरंज्य द्रव्य कणाभसूत्रों (mito. chondria ) के विह्रास से प्राप्त होता है। जब यह ज्ञात हो जाय कि एक पागल कुत्ते ने किसी व्यक्ति को काट लिया है तो उस कुत्ते के मस्तिष्क में आलर्क पिण्डों (नैगरी बौडीज़ ) ढूंढने का यत्न करना चाहिए उसके लिए चित्रपट्टी ( film of smear ) तैयार करना चाहिए। उसके लिए उपधा निका के एक टुकड़े को काट कर उसके धूसर भाग पर काचपट्ट रख कर दबाते हैं इस प्रकार कोशाओं का भावचित्र (impression) आ जाता है इसे जीम्सा की अभिरंजना पद्धति से रंग लेते हैं । छेदों ( sections ) के द्वारा अधिक विश्वस्त ज्ञान मिलता है। उसके लिए उति को लेकर तरल (Zenker's fluid ) में दृढ कर लेते हैं फिर उसे प्रोदलेन्य नील (मिथाइलीनब्ल्यू) तथा उषसि द्वारा रंगते हैं या उसे पहले प्रांगव धूमलि ( carbolaniline fuschin ) द्वारा रंग कर पुनः प्रोदलेन्य नील में रँग देते हैं और फिर अण्वीक्षण करते हैं। __सी विशिष्ट ( Herpes Zoster ) यह वातनाडीसंस्थान की एक व्रणशोथात्मक अवस्था है। इसमें विषाणु पश्चमूलों ( posterior roots ) में फैलता है। यह सुषुम्नापाक का ही एक संज्ञासदृक्ष ( sensory analogue ) है क्योंकि इसकी विकृति और मस्तिष्कोद की दशा उसके समान ही रहते हैं यद्यपिहोते हैं वे पर्याप्त सीमित। दोनों ही रोग वाचिक (sporadic) रूप में प्रकट होकर फिर व्यापक (epidemic ) रूप धारण कर लेते हैं। दोनों से For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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