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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १३ ] लगा है वहाँ रक्त क्यों पहुँचता है ? उस रक्त में आघात के समय प्राप्त जीवाणुओं और उनके विषों को नष्ट करने की कौन कौन सी वस्तुएँ पहुँचती हैं जो शरीर के उस भाग का संरक्षण करने मैं समर्थ होती हैं ? इस वाहिनी विस्फार ( वासोडाइलेटेशन) में धमनिकाओं का विस्फार यदि मुख्य है तो उसका कर्त्ता कौन है ? यदि उस क्षेत्र में रक्त का प्रवाह रोक दिया जाय तो क्षतिकर्ता जीवाणु के द्वारा क्या क्या भयङ्कर उपद्रव हो सकते हैं ? यदि क्षतिग्रस्त स्थान पर कुछ जीवाणुओं का प्रवेश करके थोड़े समय बाद उसका सैक्शन लिया जाय तो भक्षिकायाणु कितने मिलते हैं और यदि जीवाणु प्रवेश के पश्चात् वाहिनी विस्फार रोकने वाली ओषधि का सूची वेध करने के उपरान्त सैक्शन लिया जाय तो कितने जीवाणु विरोधी कोशा मिलते हैं ? क्या वाहिनी विस्फार में मुख्य कारण हिस्टैमीन है ? क्या एडीनोसीन हाइफोस्फेट या अन्य एडीनाइन कम्पाउण्डस इसमें सहायता करते हैं ? ल्यूकोट क्जीन केशालों की अतिवेध्यता ( कैपीलरी परमिएबिलिटी) कितना बढ़ाती है ? क्या इस अतिवेध्यता के कारक अन्य भी कारण हैं ? ऊति तरलों के निपीड़ (प्रेशर) का व्रणशोथ पर क्या प्रभाव पड़ता है ? आदि आदि अनेक प्रश्न केवल स्थानीय अधिरक्तता का व्रणशोथ के साथ क्या सम्बन्ध है इसे हल करने के लिए लगते हैं। इन सभी प्रश्नों के हल करने में रिग्डन, इवान्स, माइल्स, निवेन, कूपर, ल्यूइस, डेल, रोजेन्थल, मिनार्ड, फाक्को, राम्सडेल, रोचाई सिल्वा, ड्रैग्स्टैड, मैन्किन, राइडौन, स्पेक्टर, बायर, मूर, टौबिन आदि आदि अनेकों विद्वानों ने समय समय पर सहयोग करके एक रूप अपने सामने प्रस्तुत किया है। विज्ञान की उन्नति में धीरे धीरे प्रगति होती चली जा रही है। वर्षों के प्रयोगों और अनुसन्धान के पश्चात् किसी एक बात पर पहुँचा जाता है और उस पर आगे कार्य होता है । विविध देशों में बसने वाले वैज्ञानिक अपने अपने कार्य को स्वतन्त्र प्रज्ञा से करते हैं और वही तथ्य और आगे बढ़ता जाता है। नयी नयी दिशाएँ निकलती आती हैं उन दिशाओं पर प्रकाश पड़ता चला जाता है और एक नये शास्त्र का निर्माण होता चला जाता है । विज्ञान के युग में अनेक विषय विशद हो जाते हैं अनेक के सम्बन्ध की कल्पनाएँ बदल जाती हैं। उदाहरण के लिए यह तथ्य पर्याप्त काल से ज्ञात था कि कुछ लोग किसी ओषधि विशेष, भोजन विशेष या इलैक्शन विशेष से बुरी तरह प्रभावित होते हैं । दने के रोगी में किसी फूल के सूँघने से ही दौरा प्रारम्भ होता हुआ देखा जाता है। हेफीवर का नाम और इडियोसिन्क्रेसी का सम्बन्ध बहुत दिन से ज्ञात है। अब इस विज्ञान ने कितनी उन्नति की है ? यह आज रोगापहरण सामर्थ्य विज्ञान (Immunology ) का मुख्य विषय ही बन गया है । इसे हम परमहषता ( हाइपर सैन्जीटिविटी ) कहते हैं। लैण्डस्टीनर, गैल हैरिंगटन, रिवर्स ने इस पर कार्य किया है । परमहृषता उत्पन्न करने वाले द्रव्यों में से कुछ तो व्यक्ति विशेष के लिए पूर्णतः विदेशी प्रोभूजिन ही होते हैं अथवा वे उस व्यक्ति की प्रोभूजिनों के साथ हैंप्टीन या प्रोएण्टीजन के रूप में मिल जाते हैं उनके संयोग में विदेशीपन होने से एक अप्राकृतिक प्रोभूजिन शरीर में प्रविष्ट हो जाती है जिसके कारण उस व्यक्ति विशेष में एक प्रतिद्रव्य ( एण्टी बौडी ) का निर्माण होता है जिसके परिणामस्वरूप परमहृषताजन्य विविध लक्षण उत्पन्न होते हैं । सीरम का प्रयोग करने के पूर्व व्यक्ति की परमहषता का ध्यान रखना प्रत्येक चिकित्सक का मानवीय कर्त्तव्य है । इस दिशा में कार्य करने वाले विद्वानों ने घोड़ों में उत्पन्न होने वाली रोगा-पहरण सामर्थ्य पर परीक्षण किए हैं। उन्होंने देखा कि उनसे प्राप्त आरम्भिक सीरम टोक्जिन या विष के साथ उतनी दृढता तथा वेग से मिलने में समर्थ नहीं होता जितना कि बाद में प्राप्त किया गया सीरम होता है। इससे स्पैसीफिक एण्टी बौडी (विशिष्ट प्रतिद्रव्य ) का मौलीक्युलर स्वरूप सदैव एक सा ही रहता हैं यह सिद्ध नहीं होता उसमें बराबर परिवर्तन भी देखा जा सकता For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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