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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव २१७ किए हम रह नहीं सकते: The lesions of poliomyelitis are more severe, more_destructive, and more focal in type and that, though the brain is constantly involved, the cord is the chief sufferer. कि व्यापक मस्तिष्कपाक की अपेक्षा सुषुम्नाधूसर द्रव्यपाक में विक्षत गम्भीरतर, अधिक विनाशक, अधिक नाभ्य प्रकार के होते हैं और यद्यपि मस्तिष्क स्थायीरूप से प्रभावित होता है परन्तु सुषुम्ना प्रमुख कष्टभोक्ता होती है । अन्य अंगों में भी कुछ विक्षत इस रोग के साथ साथ देखे जा सकते हैं परन्तु इस रोग के कर्ता विषाणु के कारण होते हैं इन्हें कोई सिद्ध नहीं कर सका है । विद्वानों का मत यह है कि यकृत् की ऊति की नाभ्य मृत्यु तथा मेघसम शोथ, शरीरस्थ लाभ ऊति की सूजन ( विशेषतः प्लीहा के लसकूपों तथा आंतों की लसदरचनाओं की ) तथा हृत्पेशीपाक ( myocarditis ) आदि लक्षण रोग के साथ साथ देखे जा सकते हैं इनका विषाणु विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं । हृत्पेशीपाक अन्य विषाणुरोगों में भी देखने को मिला है । अब हम विज्ञतों से रोग के लक्षणों का क्या सम्बन्ध है उसे भी संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे । यह सदैव स्मरणीय है कि सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक एक औपसर्गिक रोग है जिसमें अंगघात ( paralysis ) हो भी सकता है और नहीं भी । जहाँ वह नहीं होता या जब तक वह नहीं होता तब तक पूर्वघातावस्था (preparalytic stage) मानी जाती है । इस अवस्था में बालक सज्वर, प्रक्षुब्ध, चिड़चिड़ा ( बात बात पर क्रोध करने वाला ) हो जाता है और ग्रीवा तथा पृष्ठवंश में स्तब्धता ( stiffness ) देखी जाती है । दूसरे या तीसरे दिन अंगघात प्रायः उत्पन्न होता है । उत्पन्न होने के साथ ही साथ यह अधिक से अधिक अंगों का वध एक दम कर डालता है यह नहीं कि धीरे धीरे अंगवध करता हो उसका कारण यह प्रतीत होता है कि इस व्याधि की प्रतीकारिता शक्ति तुरत ही शरीर में प्रकट हो जाती है जिसके ही कारण आगे अंगवध या अंगघात या घात सम्भव नहीं हो पाता। इस प्रतीकारिता की साक्षी रोग के छठे दिन ही रक्त से ली जा सकती है । यह सम्भव है कि पूर्वघातावस्था में ही यह प्रतीकारिता (immunity ) इसलिए उत्पन्न हो गई हो कि उसके द्वारा घात पूर्णतः रोक दिया जा सके । यह कहना नितान्त असम्भव है कि मनुष्य में पूर्वघातावस्था के अन्दर सुषुम्नाars के भीतर क्या क्या विक्षत हो जाते हैं क्योंकि जीवित मनुष्य की सुषुम्ना का दर्शन किया ही नहीं जा सकता । पर जितना भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है वह यह है कि सुषनाथ मस्तिष्कोद में कोशागणनसंख्या बढ़ जाती है और वे कोशा बहुन्यष्टिरकोशा ही होते हैं जो यह स्वष्टतः बतलाता है कि सुषुम्ना में व्रणशोथात्मक विक्षत बनते हैं और व्रणशोथात्मक परिवर्तन होते हैं यद्यपि साश्चर्य ( curiously ) मस्तिष्कछदपाक अनुपस्थित रहता है । १६, २० वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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