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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ११ ] हिन्दी भाषा में वैज्ञानिक ग्रन्थों के प्रणयन में सर्वाधिक बाधा पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग की प्रायः पड़ा करती है। इस विषय में दो मुख्य मत हैं एक जो लैटिन वा पाश्चात्य शब्दों के. प्रयोग को ज्यों का त्यों स्वीकार करना मनो विज्ञान को प्रगति पथ पर बराबर बढ़ने देना मानते हैं। वे उन शब्दों का अनुवाद करना समय और शक्ति का अपव्यय समझते हैं। दूसरा मत अनुवाद के पक्ष में है। इस मत के समर्थकों में भी मतभेद है। कुछ प्राच्य समर्थक हैं जो किसी भी नये शब्द का ग्रहण तब करने को तैयार हैं जब वह प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता हो । कुछ नवोन शब्द-रचना के समर्थक हैं । उनके मत से प्राचीन शब्द को उसके स्थान पर ही रहने दिया जाना चाहिए तथा वे नवीन शब्द जो भाव का यथावत् बोध करने में समर्थ हो उसी को लेना उचित मानते हैं । उदाहरण के लिए आक्सीजन के लिए प्राच्य समर्थक प्राणवायु या विष्णुपदामृत या अन्य किसी वेदोक्त वा पुराणोक्त अथवा शास्त्रोक्त शब्द को लाना चाहेंगे। नवशब्दरचनासमर्थक उसके स्थान पर आक्सीजन शब्द की सार्थकता किस नये शब्द में अधिकतम मिल सकती है इसे देखकर एक ऐसा शब्द उपस्थित करेंगे जिसका प्रयोग नया होगा शब्द कदाचित् कोश में मिल जावेगा। आक्सीजन के लिए ऐसे लोग 'जारक' का व्यवहार कर सकते हैं । क्योंकि आक्सीजन का मुख्य गुण जारण करनेवाला स्पष्ट और प्रसिद्ध है। नयी शब्द-रचना में इस विदेशी शब्द के विविध रूपों को प्रयोग करने की सुलभता का भी ध्यान रख लिया जाता है जैसे औक्साइड के लिए 'प्राणवायु' से शब्द निकालना हास्यास्पद है। पर जारक से जारेय बन सकता है। कुछ तुल्यशब्दरचना के समर्थक भी होते हैं। वे औक्सीजन को ओषजन कहना पसन्द करते हैं। ओषजन कहने से तो आक्सीजन कहना अधिक तर्क सम्मत है क्योंकि यह शब्द का अन्धानुकरण है जो कोई भी राष्ट्र कदापि स्वीकार नहीं कर सकता विशेषकर भारत जिसके. पास संस्कृत का बहुत पवित्र और विशाल ऐसा शब्द भण्डार है कि जिसकी तुलना अन्यत्र की ही नहीं जा सकती । एक धातु में उपसर्गों और प्रत्यय का प्रयोग करके असंख्य शब्दों का निर्माण किया जा सकता है । व्यावहारिक शब्द-निर्माण की ओर हिन्दी के राज्यभाषा के पद पर अधिष्ठित होने के साथ ही नये प्रयत्न किए गये हैं। देश की अंगरेजों की दासता की मुक्ति ने अंगरेजी से दासत्व मुक्ति के लिए एक नवीन मार्ग खोल दिया है। इस दिशा में सर्वाधिक प्रयत्नशील रही है नागपुरस्थ दी इण्टरनेशनल एकेडेमी आफ इण्डियन कल्चर । इस संस्था ने देश की अतुलनीय सेवा की है। इसका सर्वाधिक श्रेय है विद्वज्जगत् के मूर्धन्य श्री डा. रघुवीर एम. ए., पी. एच. डी. डी. लिट एट फिल को जिन्होंने देश-देशान्तर में ज्ञानार्जन करके स्वयं संस्कृत के. प्रकाण्ड विद्वान् होने के कारण ऐसी विलक्षण शब्द-रचना देश को प्रदान की है कि जिससे न केवल हिन्दी अपि तु, बंगला, आसामी, ब्राह्मी, पञ्जाबी, मराठी, गुजराती, तामिल, तिलगू, कन्नड, मलयालय, उडिया आदि सभी भारतीय तथा सिंहलीय, इण्डोनेशियाई, हिन्दचीनी, मलयी, स्यामी आदि अन्य भारतेतर देशों की भाषाएँ भी पर्याप्त लाभ प्राप्त कर सकती हैं। उनके द्वारा निर्मित कुछ शब्दों के उदाहरण देना मैं आवश्यक समझता हूँ Phosphorus ( फास्फोरस ) के लिए उन्होंने भास्वर शब्द का प्रयोग किया है। इसी से एक विशेषण बनता है Phosphorous उसके लिए मास्व्य शब्द प्रयोग किया है । इसी से निकले अन्य शब्द इस प्रकार हैं phospho phosphate phosphated phosphatic २ वि० भू० भास्व भास्वीय भास्वीयित भास्वीयिक phosphite phosphonate phosphorate phosphoreal भास्वित भास्वायीय भास्वरण भास्वरिय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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