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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ विकृतिविज्ञान पहुँचा था । संयुक्तदेश अमेरिका के विनीपेग नगर में इसके दो व्यापक आक्रमण क्रमशः १९१९-२० तथा १९२३ के प्रारम्भ में हुए थे। १९२४ के पश्चात् इस रोग का महामारी के रूप में फैलना बन्द हो गया है और इतस्ततः कभी कभी एक दो रोगी देखे जाते हैं। एक अमेरिकन डाक्टर ब्वायड ने स्वयं इस रोग के रोगियों की चिकित्सा और मृत्यूत्तर परीक्षा की थी अतः हम यहाँ उसी के अनुसार सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हैं जो पर्याप्त ज्ञानप्रद सामग्री उपस्थित करने में समर्थ हुआ है। उसने विनीपेग की पहली महामारी में ७५ रुग्णों की चिकित्सा की थी जिनमें १६ की मृत्यूत्तर परीक्षा (autopsy ) भी सम्मिलित है। दूसरी महामारी में उसने ६३ रुग्णों की चिकित्सा की थी और ९ मृत्यूत्तर परीक्षाएँ भी की थीं। उसके कथनानुसार दोनों महामारियों में रोग का नैदानिक चित्र एक दूसरे से इतना विभिन्न था कि दोनों एक ही रोग के पृथक स्वरूप हैं ऐसा विचार भी नहीं उठता था। १९२० का रोगी, शय्या पर लकड़ी के टुकड़े की तरह पड़ा रहता था उसके पलक झपे और आंखें बन्द रहती थीं चेहरे पर कोई भाव प्रकट नहीं होता था, वह प्रगाढ तन्द्रा में पड़ा रहता था जिससे चैतन्यावस्था लाना कदापि सम्भव नहीं दिखलाई पड़ता था । मन पूर्णतः उदास और स्फूर्ति नष्ट हो जाती थी उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता था। परन्तु १९२३ का रोगी उससे भिन्न प्रकार का था। शरीर और मन दोनों सक्रिय थे। पेशियाँ निरन्तर और सतत कार्यरत थीं इसकी तुलना औन्मादिक प्रकार से की जासकती थी। रोगी शब्दों की बौछार करता था जिनका प्रारम्भ में कुछ अर्थ होता था पर बाद में वे केवल प्रलाप को ही पुष्ट करते थे। वार्तालाप का मुख्य विषय उद्यम ( occupation) रहता था : अर्थात् रुग्ण शिक्षक निरन्तर पढ़ाता रहता था, व्यापारी हिसाब किताब करता हुआ रहता था, भवननिर्माणकर्ता भवनों की पैमाइश करता हुआ देखा जाता था। यदि पहले प्रकार को हम मन्दक मस्तिष्कपाक (Encephalitis Lethargica ) नाम दे दें तो दूसरे प्रकार के लिए वह नाम पूर्णतः अयुक्तियुक्त देख पड़ेगा क्योंकि एक चित्र क्रियानाश का द्योतक है तो दूसरा क्रियोद्वेग का प्रकटायक है। इसी लिए क्रियामान्य या क्रियाऔग्रय से दूर व्यापकमस्तिष्कपाक या जनपदोध्वंसक मस्तिष्कपाक इसका नाम दे दिया गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि दूसरे प्रकार के रोगी जो प्रारम्भ में अत्यधिक बकझक करते और क्रियाशील थे उनमें भी आगे चल कर ५६ प्रतिशत रोगियों में विलम्ब से या शीघ्र क्रियामान्य ( lethargy ) के लक्षण प्रकट होने लगे थे तथा जिनको आतुरालय से स्वस्थ घोषित करके उन्मुक्त कर दिया गया था वे भी स्पष्टतया तन्द्रालु ( drowsy ) दिखलाई पड़ते थे। विकृतशारीर की दृष्टि से दोनों प्रकारों में कोई विशेष अन्तर न होने के कारण दोनों का सर्वसाधारण वर्णन किया जा रहा है। विकृतशारीर की दृष्टि से प्रत्यक्ष या अण्वीक्षीय जो घटना ( feature ) प्रधानतः प्रकट होती है वह है अधिरक्तता ( congestion )। मस्तिष्कछदीय वाहिनियाँ विशेष कर वे जो For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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