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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ विकृतिविज्ञान मस्तिष्कोद साधारणतया प्रकृत रहता है। पर यदि विद्रधि धरातल पर ही हुई तो वैषिक प्रचूषण से सौम्य मस्तिष्कछदपाक देखा जाता है तथा मस्तिष्कोद में कोशाओं और प्रोभूजिन दोनों की मात्रा कुछ बढ़ी हुई मिल सकती है। यह स्मरण रखना होगा कि यहां पर रोगाणुप्रचूषण के साधारण रूप से प्राप्त मस्तिष्कछदपाक के लक्षण नहीं मिलते तथा तापांश प्रकृत या अधःसामान्य ( subnormal ) रहता है। नाड़ी की गति अत्यन्त मन्द मिलती है तथा रक्त में सितकोशोत्कर्ष बहुत कम होता है जब कि मस्तिष्कछदपाक में वह बहुत अधिक देखा जाता है। जीर्णता के लिए मस्तिष्क विद्रधियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। कई कई मास तक मस्तिष्क में विद्रधियाँ बनी रह सकती हैं तथा उनके द्वारा किसी भी प्रकार की गड़बड़ी होती हुई नहीं देखी जाती जो अत्यन्त आश्चर्यजनक है आगे चलकर ऐसी विद्रधियाँ या तो किसी मस्तिक निलय में या ऊपर की ओर मस्तिष्कछद में विदीर्ण हो जाती हैं। मस्तिष्कछद में विदीर्ण होने पर उनसे तीव्र और मारक मस्तिष्कछदपाक हो जाता है । प्रथम महायुद्ध में ऐसे अनेक रोगी देखे गये जिनके मस्तिष्क में बाह्य वस्तु के प्रवेश करने के बहुत काल पश्चात् मस्तिष्कविद्रधि बनी हो। मस्तिष्कछदपाक ( Meningitis) मस्तिष्कछद ( meninges ) में उपसर्ग रक्तधारा तथा समीपस्थ नाभि कहीं से भी पहुँच सकता है। यह नाभि मस्तिष्क में भी हो सकती है तथा नासाग्रसनी, नासाकोटर, करोटिकोटर तथा मध्यकर्ण में कहीं भी हो सकती है। मस्तिष्कछदपाक में जितने रोगकारी जीवाणु ज्ञात हैं उनमें से कोई भी पाया जा सकता है पर चार बहुत करके मिलते हैं जो मस्तिष्कगोलाणु ( meningococcus ), फुफ्फुसगोलाणु ( pneumococcus ), मालागोलाणु (streptococcus) तथा यक्ष्मादण्डाणु ( tuberole bacillus) कहलाते हैं। इनमें से प्रथम तीन पूयजनक होने के कारण पूयीय व्रणशोथ उत्पन्न करते हैं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कभी कभी पूयजनक रोगाणुओं की अनुपस्थिति में भी एक तीव्र और पूयीय व्रणशोथ उत्पन्न होता हुआ देखा जा सकता है और उसका कारण जीवाणु-इतर कोई प्रक्षोभक ( nonbacterial irritant ) हो सकता है। इसका एक उदाहरण जीवाणुरहित लवणविलयन (sterile salt solution ) का उपजालतानिकीय अवकाश (ब्रह्मोदकुल्या) में अन्तःक्षेप है जो कोमल मस्तिष्कछद में व्रणशोथ उत्पन्न कर सकता है। कटिवेध से प्रतिधनुस्तम्भ लसिका अन्तःक्षेप कर देने से भी इङ्गिल्टन उसी परिणाम पर पहुंच चुका है। धनुस्तम्भ में जो व्यक्ति इस भ्रम में रहता है कि यदि वह प्रतिधनुस्तम्भ लसीका मस्तिष्कोद में पहुँचाता रहेगा तो यह रोग नष्ट हो जायगा तो वह अपने रोगी को मारने का ही उपाय करता है। क्योंकि वैसा करने से तीव अजीवाणुक मस्तिष्कछदपाक ( acute aseptic meningitis ) उत्पन्न हो जाता है। जो लोग जम्बेयित तैल For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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