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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ विकृतिविज्ञान (atrophy ) हो जाती है तथा उनकी प्रणालिकाएं (ducts ) मात्र ही अवशिष्ट रह जाती हैं तन्वीयित स्तनों का यह स्वाभाविक परिवर्तन होता है। इन प्रणालिकाओं में दुहरे अधिच्छदीय कोशाओं का स्तर चढ़ा होता है। सभी आकारों के कोष्ठ भी देखने को मिलते हैं बड़ों में अधिच्छदीय परमचय ( hyperplasia ) होता है और अधिच्छद स्तम्भकारी देखा जाता है जिसके अंकुर अन्दर की ओर जाते हुए देखे जाते हैं । कुछ कोष्ठावकाश अंकुरित पदार्थ द्वारा पूर्णतः भरे हुए भी मिलते हैं जैसे कि नाभ्य परमचय में अवटुका के आशयक ( vesicles ) भरे हुए देखे जाते हैं। कुछ ऐसा मानते हैं कि इस अधिच्छदीय पदार्थ से मारात्मक अर्बुद का उदय होता है। कुछ कोष्ठों के आस्तरण बड़े, पाण्डुर, अम्लप्रिय कायारसयुक्त कोशा बनाते हैं जो विशल्कित हो जाते हैं और उनमें स्नैहिक परिवर्तन भी आ जाते हैं । लसीकोशाओं की भरमार किन्हीं स्थानों में कम और किन्हीं में अधिक देखी जाती हैं। इस भरमार का कुछ कारण तो होता है परमचयिक क्षेत्रों का अन्तर्वलयन या तन्वीयन (involution) और वह स्तनों के स्वाभाविक अन्तर्वलयन के समय देखा भी जाता है । शेष हेतु केनीज के कथनानुसार प्रणालिकाओं में संग्रहीत स्राव के कारण उत्पन्न प्रक्षोभ माना जाता है। इस स्राव में पूयसम, अर्द्धतरल स्नैहिक पदार्थ रहता है जो निःस्राव के स्नैहिक उत्पादों और विशल्कित कोशाओं के कारण तैयार होता है जो कि प्रणालिकीय अधिच्छद के निरन्तर प्रगुणन के परिणामस्वरूप बनता है। इस रोग में कोई भी विशिष्ट रोगाणु स्तन से भी अभी तक प्राप्त नहीं किया जा सका। इसी कारण व्रणशोथ का इसमें कोई महत्त्वपूर्ण हाथ नहीं रहता ऐसा माना जाता है। इसमें तान्तव ऊति की वृद्धि के कारण परिकानालीय ( pericanalicular ) तन्तु-ग्रन्थ्यर्बुद के समान आकृतियाँ प्रायशः देखी जाती हैं। यह प्रौढ़ाओं का रोग है और जब उनमें होता है तो यह प्रसर तथा उभयस्तनीय होता है। किन्हीं किन्हीं नवयुवतियों में भी यह मिलता है वहाँ यह स्थानिक सिध्म का रूप लेता है। पुरुषों के स्तनों में जब यह होता है तो उनके संधार में प्रसर परमचय मिलता है कोष्ठों का निर्माण अधिक नहीं देखा जाता। यह कहना कि यह स्तनकर्कटोत्पत्ति की पूर्व भूमिका है इस समय कठिन है कुछ विद्वान् वैसा मानते हैं और बहुत उसका विरोध करते हैं । वातनाडीसंस्थान पर व्रणशोथ का परिणाम । इससे पूर्व कि हम वातनाडीसंस्थान ( nervous system ) पर व्रणशोथ के परिणामों की चर्चा करें हम वातनाडीसंस्थान की सामान्य वैकारिकी का वर्णन प्रस्तुत करते हैं क्योंकि बिना उसका ज्ञान किए इस विषय का समझना कुछ दुरूह हो सकता है। ___शरीर की अन्य ऊतियों से तुलना करने पर हमें वातनाडीसंस्थान में कई दृष्टियों से कई विभिन्नताएं दृष्टिगोचर होती हैं इसकी रचना कितनी जटिल है इसका ज्ञान तब होता है जब हम उसकी यकृत् से समानता करें। जिन घटकों से यह संस्थान For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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