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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ] (सुश्रुतोक्त) १८-श्यावा जिह्वा भवेद्यस्य सव्यं चाति निमजति।मुखं च जायते पूति यस्य तं परिवर्जयेत्।। जिसकी जीभ काली हो जाती है, वाम नेत्र गढ़ जाता है, मुख से बदबू आती है उसे छोड़ दे। १९-चिकित्स्यमानः सम्यक् च विकारो योऽभिवर्धते। प्रक्षीणबलमांसस्य लक्षणं तद्तायुषः ।। - लगातार चिकित्सा करने से भी जिसका विकार बढ़ता है और बल-मांसक्षीण होता चला जाता है उसके ये लक्षण गतायु के द्योतक हैं। २०-शूनंसुप्तत्वचं भग्नं कम्पाध्माननिपीडितम्। नरं रुजार्तिमन्तं च वातव्याधिविनाशयेत्॥ शोथ, स्पर्शज्ञानहीनता, अस्थिभंग, कम्प और आध्मान से पीडित अत्यधिक शुलयुक्त व्यक्ति को वातरोग नष्ट कर देता है। २१-यथोक्तोपद्रवाविष्टमतिप्रचुतमेव च । पिडकापीडितं गाढं प्रमेहो हन्ति मानवम् ॥ शास्त्रोक्त उपद्रवों से युक्त, अधिक मात्रा में बार-बार मूत्रत्यागी तथा पिडकाओं से पीडित प्रमेह मानव को नष्ट कर देता है। २२-गर्भकोषपरासङ्गो मकलो योनिसंवृतिः। हन्यात् स्त्रियं मूढगर्भे यथोक्ताश्चाप्युपद्रवाः। मूढगर्भ होने पर गर्भाशय क्रियाहीन हो जावे, मक्कलशूल हो, योनि में संवरण हो जाय तथा अन्य शास्त्रोक्त उपद्रव हों तो स्त्री का प्राणनाश हो जाता है । २३-पार्श्वभङ्गानविद्वेषशोफातीसारपीडितः । विरिक्तं पूर्यमाणं च वर्जयेदुदरादितम् ॥ पार्श्व में भेदनवत् शूल, अन्न से द्वेष, शोफ, अतीसार हों तथा विरेचन करने पर भी जिसके जल की मात्रा उदर में बराबर भर जाती है ऐसे उदर रोगी को त्याग दे। २४-यस्ताम्यति विसंज्ञश्च शेते निपतितोऽपि वा । शीतादितोऽन्तरुष्णश्च ज्वरेण म्रियते नरः।। सोने पर भी जो मूच्छित और विसंज्ञ हो जाता है तथा गिर जाता है अथवा बाहर से ठण्डा और टेम्परेचर लेने पर जिसे अधिक गर्मी मिले ऐसा ज्वर से मर जाता है । (वाग्भटोक्त) २५-आननं हस्तपादं च विशेषाद्यस्य शुष्यतः । शूयेते वा विना देहात् स मासाद्याति पञ्चताम् ॥ ___ मुख और हाथ पैर जिसके विशेषरूप से सूखने लगें या सूज जावें परन्तु शरीर यथावत् रहे तो वह व्यक्ति एक महीने में मर जाता है। २६-चन्दनोशीरमदिराकुणपध्वाङ्क्षगन्धयः । शैवालकुक्कुटशिखाकुङ्कुमालमषीप्रभाः । अन्तर्दाहा निरूष्माणः प्राणनाशकरा व्रणाः ।। जिन व्रणों से चन्दन, खस, शराब, मुर्दा और ध्वक्षि ( काक या सारस ) जैसी गन्ध आती हो या जो शैवाल, मुर्गे की कलगी, कुङ्कुम, छाल अथवा स्याही के रंग के हो गये हों जिनमें अन्तर्दाह तो हो पर ऊष्मा रहित हों वे प्राणनाश करते हैं। (माधवनिदान) २७-हेतुभिर्बहुभिर्जातो बलिभिर्बहुलक्षणः।ज्वरः प्राणान्तकृयश्च शीघ्रमिन्द्रियनाशनः ॥(च) ___ बहुत कारणों से उत्पन्न, बलवान् , अनेक लक्षणयुक्त ज्वर और इन्द्रियज्ञानशक्ति नष्ट करके प्राणनाशकारक होता है। २४-पकजाम्बवसंकाशं यकृत्खण्डनिभं तनु । घृततैलवसामजावेशवारपयोदधि मांसधावनतोयाभं कृष्णं नीलारुणप्रभम् । मेचकं स्निग्धक—रं चन्द्रकोपगतं धनम् ॥ कुणपं मस्तुलुङ्गाभं सुगन्धि कुथितं बहु । तृष्णादाहतमाश्वासहिकापावास्थिशूलिनम् ॥ संमूर्छारतिसंमोहयुक्त पक्कबली गुदम् । प्रलापयुक्तं च भिषग्वर्जयेदतिसारिणम् ॥ (सु.) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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