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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ विकृतिविज्ञान लाल कण और निर्मोक मिलते हैं परन्तु इनमें विमेदाभ या काचरविन्दुक विहास अधिक नहीं मिलता । अन्तरालित तन्तूत्कर्ष तथा लसीकोशाओं एवं प्ररसकोशाओं की यहाँ पर भरमार खूब मिलती है । तान्तव ऊति का विभाजन सिध्मों में होता है । जिनके बीच बीच में सजीव परमपुष्ट विस्फारित नालिकाएँ पाई जाती हैं । तान्तव ऊति का एक जाल सा बिछ जाता है जो कहीं सघन और कहीं विरल होता है । साथ की वृक्कटिकाएँ प्रवृद्ध तथा स्वस्थ मिलती हैं । जब कभी नालिकाएँ बहुत अधिक विस्फार कर जाती हैं तो वे फट जाती हैं। कई कई फटी हुई नालिकाएँ मिलकर कोष्ट (cysts ) बना लेती हैं। ज्यों ज्यों वृक्कों की क्रियाशक्ति कम होती जाती है जीर्ण मिहरक्तता होने लगती है जो १ वर्ष तक रहती है मृत्यु का कारण मिहरक्तता ( ureamia ), हृद्भेद ( cardiac failure ) अथवा कोई उपसर्ग हुआ करता है । द्वितीय प्रकार - यह अति चिरकारी है जो २ से १० वर्ष तक रहता है और इसका अन्त जीर्ण मिहरक्तता ( chronic uraemia ) में होता है | अधिक जीर्ण होने के कारण प्रत्यक्ष विकृति प्रथम प्रकार जैसी ही होती है पर उससे कुछ अधिक प्रवृद्ध दशा में ही होती है । अण्वीक्षणतया अनेक वृक्क जूटिकाओं में पूर्णतः तन्तूत्कर्ष हो जाने से वे नष्ट हो जाती हैं और अधिकांश में कुछ अधिक या कम आघात का लक्षण मिलता है । यह युवावस्था का रोग है और इसके लक्षण मिहरक्तता प्रारम्भ होने के पूर्व प्रत्यक्ष नहीं हो पाते । तृतीय प्रकार - इस प्रकार में वृक्कों का आकार जितना घट जाता है उतना अन्य प्रकारों में नहीं जहाँ स्वाभाविक वृक्क का भार १५० माषा होता है इस रोग में यह ३० भाषा तक की देखा गया है । इसका धरातल रूक्ष और कणात्मक हो जाता है उस पर व्रणवस्तु ( scarring ) खूब हो जाती है परन्तु प्रावर चिपका हुआ नहीं मिलता । अण्वीक्षण तथा वृक्क ऊति का नाश बहुत अधिक हुआ करता है तथा तन्तूत्कर्ष प्रधानतया मिलता है परमपुष्ट वृक्काणुओं के द्वीप इतस्ततः बहुत कम संख्या में फैले रहते हैं उनमें भी व्रणशोथात्मक परिवर्तन देखने को मिलते हैं । धमनी - जारठ्य अधिक भी मिल सकता है और कम भी । अधिक होने पर विशोणिक अपुष्टि (ischaemic atrophy ) भी साथ में रहती है । ग्रीन इस रोग को एक प्रकार का रहस्य ( mystery ) मानता है । क्योंकि इससे आहत रोगी को कोई विशेष शारीरिक कष्ट या लक्षण नहीं होता और उसका वृक्क इतना छोटा हो जाता है । जब तक मिहरक्तता नहीं हो जाती इसका ज्ञान भी नहीं होता । यह बालकों में भी होता है तथा २५ वर्ष के तरुण-तरुणियों में भी पाया जाता है । फिरंग इस रोग का कर्ता होगा ऐसा मानना पूर्णतः सत्य नहीं है । चतुर्थ प्रकार - - नाभ्यवृक्कपाकों में यह सबसे कम गम्भीर रोग है । अन्य प्रकारों के विपरीत यह ४० वर्ष से ऊपर के व्यक्तियों का रोग है इसमें वृक्क की वही दशा होती है जैसी रक्तनिपीडाधिक्य से पीडित व्यक्ति के वृक्क की होती है । इसमें वृक्कजन्य लक्षणों की अपेक्षा हृद्-वाहिनीय लक्षण अधिक मिलते हैं । रक्तपीडनाधिक्य, For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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