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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ विकृतिविज्ञान आरोही ( ascending )। उसके पश्चात् यह बेलिनी की प्रणाली ( duct of bellini ) में खुलती है। सर्वप्रथम अन्तर्खण्डिकीय धमनी ( interlobular artery ) से अभिवाही धमनी ( afferent artery ) द्वारा रक्त जूट गुच्छ में प्रविष्ट होता है फिर जूट की विविध केशिकाओं में होता हुआ जूट की अपवाही धमनी (efferent artery ) द्वारा बाहर चला जाता है। यह स्मरणीय है कि रक्त जूट में प्रविष्ट होते समय भी धामनिक रहता है और निकलते समय भी। उसके पश्चात् यह नालिकीय भाग में पहुँचता है यहाँ यह उसकी धमनी-सिरा-केशाल शैया पर विच्छिन्न हो जाता है। इस कारण यदि किसी कारण से वृक्काणु जूट में रक्त न पहुँचे तो नालिकीय भाग में विशोणता होकर उस नालिका की मृत्यु हो जा सकती है। वृक्वाणु जूट में निपावन ( filtration )के द्वारा तनुमूत्र (dilute urine ) बन जाता है। इसके निर्माण में कोई विशेष कोशीय क्रिया देखने में नहीं आती इसी कारण रक्त सिराजन्य रक्त नहीं बन पाता क्योंकि जारकवाति का कोई उपयोग नहीं हो पाता। कुश्नी के मत से जूटस्थ मूत्र रक्तरस का प्रोभूजिन विरहित पावित (protein-free filterate of plasma ) है जिसमें शर्करा, मिह तथा विविध लवणों के स्फटाभ (crystalloids ) उपस्थित रहते हैं। पावननिपीड धमनी केशालनिपीड़ के बराबर होता है जो उस वाहिगुच्छ में उपस्थित रहता है। ज्यों ज्यों रक्त वृक्काणु जूट में होकर बहता रहेगा त्यों त्यों रक्तरस छन छन कर मूत्र रूप धारण करता रहेगा जिसमें कई स्फटाभ भी सम्मिलित होते रहेंगे। नालिकाओं में २ प्रकार के कार्य चलते रहते हैं जिनमें एक उदासर्जक (secretory) और दूसरा प्रचूषणात्मक (absorptive)। यह कार्य कोशाओं के द्वारा होने से रक्त की जारकवाति का वे प्रयोग करते हैं और धमनीरक्त को सिरारुधिर में परिवर्तित कर देते हैं। जूटीय मूत्र में से शर्करा ( sugar ) क्षारातु नीरेय ( sodium chloride ) और बहुत सा जल प्रचूषित हो जाता है । इन दोनों पदार्थों को द्वारस्थ पदार्थ (threshold substances) कहते हैं। क्योंकि जो मूत्र बाहर निकल जाता है उसमें उनकी राशि का संकेन्द्रण रक्त में उनकी राशि के संकेन्द्रण के संतल ( level ) पर निर्भर करता है। जैसा कि अन्य केशाल शैयाओं के सम्बन्ध में यह सत्य है कि उन सब में से होकर एक साथ रक्त नहीं बहा करता, बल्कि कुछ बन्द रहती हैं और कुछ चालू रहती हैं, उसी के अनुसार वृक्काणुजूटों के वाहिगुच्छ सभी एक साथ न खुलकर बारी बारी से खुला करते हैं, किसी में होकर रक्त प्रवाहित होता है तो कुछ बन्द पड़े रहते हैं इसी कारण जब वृक्काणुओं में होकर कोई विषाक्त पदार्थ बहता है तो जो खुले रहते हैं उन केशालों को तो वह अहित कर देता है पर जो बन्द रहते हैं वे उसके प्रभाव से पूर्णतः बाहर रहते हैं। - जब कोई विषाक्त पदार्थ रक्त से छन कर केशालजूटों में आता है उस समय उसमें जलाधिक्य होने से वह उन जूटों की प्राचीरों पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाता पर जब वह नालिकाओं में पहुँचता है जहाँ जलीयांश के प्रचूषण के कारण उसका For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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