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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १३३ नाम से जर्मन बोलते हैं। जब यह स्थूल तान्तव चादर संकोच करती है तो केशिकाभाजीय रक्तसंवहन का अवरोध हो जाता है जिससे जलोदर उत्पन्न हो जाता है। साथ ही यकृत् जूते की आकृत का न रह कर गोल ग्लोबाकार हो जाता है। इस रोगको कूटयकृद्दाल्युत्कर्ष (Pseudo Cirrhosis) या केन्द्राभिगयकृद्दाल्युत्कर्ष (Centripetal cirrhosis) कहते हैं। (१०) पित्ताशय पर व्रणशोथ का प्रभाव पित्ताशय याकृत्प्रणाली का अन्धस्यून ( diverticulum ) है। इसमें स्तम्भाकार अधिच्छदीय स्तर रहता है जो सूक्ष्म अंकुरों द्वारा विन्यस्त रहता है। इसकी प्राचीर पूर्ण प्रगल्भ अरेख पेशी की बनी होती है। इसका मुख्य कार्य पित्त का संकेन्द्रण है जो यह पित्त में जल का प्रचूषण करके करता है। साथ ही यह पित्त का आलगत्व ( viscosity ) उसमें एक प्रकार का श्लेष्मा मिलाकर बढ़ा देता है। पित्ताशयपाक (Cholecystitis ) अन्य भागों की भांति पित्ताशय का पाक तीव्र और जीर्ण तथा सपूय और अपूय किसी भी प्रकार का हो सकता है । इस रोग के कारकों में आन्त्रदण्डाणु, मालागोलाणु मन्थरज्वरदण्डाणु, मुख्य हैं जिनमें शोणहरित मालागोलाणु अधिक महत्त्वपूर्ण है। ये कारक निम्न मार्गों से पित्ताशय तक पहुँचते हैं १. रक्तधारा द्वारा। २. यकृत् से--अ-लसीकावहाओं द्वारा या आ-पित्त में होकर । ३. ग्रहणी (duodenum) द्वारा-अ-किसी आरोही उपसर्ग से या आ-लसीकावहाओं द्वारा। रक्तधारा द्वारा जीवाणुओं का प्रवेश सरल सुगम और अधिक सम्भव है क्योंकि पित्त तो जीवाणुओं पर (विशेष कर मालागोलाणुओं पर) प्रायः मारक प्रभाव रखता है । आन्त्रिक या मन्थरज्वर में दण्डाणु प्रथमावस्था में ही पित्ताशय में पहुँच जाता है जब कि जीवाणु रक्त में ही होता है। ग्रहणी के द्वारा पित्ताशय तक उसका पहुँचना आवश्यक नहीं । अब हम पित्ताशय पाक की तीव्र और जीर्ण अवस्थाओं पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं: तीव्रपित्ताशयपाक ( Acute Cholecystitis)-जैसा कि व्रणशोथ का परिसेकी, पूयीय या स्फूर्त ( fulminant ) प्रकार हम अन्यत्र श्लैष्मिक कलाओं के पाकों में देख चुके हैं वैसा ही यहाँ पित्ताशय में भी देखने को मिलता है। स्फूर्त प्रकार में श्लैष्मिक तथा अनुश्लैष्मिक स्तरों से रक्तस्राव होता है। इस रोग में पित्ताशय प्रफुल्लित (distended ) और आतत ( tense ) हो जाता है। अधिक गम्भीर होने पर सम्पूर्ण पित्ताशय में कोशोतिपाक (cellulitis) हो जाता है, सम्पूर्ण प्राचीर स्थूलित हो जाती है और उसके ऊपर के उदरच्छद में तन्विमत् For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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