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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव ११४ जीर्ण उदरच्छदपाक-तीव्र या अनुतीव्र उदरच्छदपाक का परिणाम जीर्णपाक में हुआ करता है जब कि तन्त्विमत् अभिलाग या संसक्तियों का उपशम (resolution ) नहीं होता है और वे तान्तवपट्टियों में समंगीकृत ( organised) हो जाती हैं यद्यपि पर्याप्त समय के पश्चात् वे भी लुप्त हो जा सकती हैं। आमाशय या आंतों के जीर्ण व्रणात्मक विक्षतों के कारण सम्बद्ध उदरच्छद में जीर्ण पाक के लक्षण देखे जा सकते हैं। यकृद्दाल्युत्कर्ष (cirrhosis of the liver) या जीर्ण वृक्कपाक के साथ भी जीर्ण उदरच्छदपाक देखा गया है पर वैसा क्यों है यह कहना अभी तक कठिन है। बहुलसीकलापाक ( Polyserositis) ___ इसे पिकरोग (pick's disease) भी कहते हैं । इसमें परिहृच्छद, फुफ्फुसच्छद तथा ऊोदरच्छद का स्थूलन (thickening) हो जाता है । ऊर्बोदर में प्लीहा और यकृत् को आच्छादन करने वाली उदरच्छद आती है। सर्व प्रथम तन्तूकर्ष होता है फिर तान्तव उति का काचरीकरण (hyalinisation ) हो जाता है जिसके कारण इन तलों पर एक श्वेत, दृढ़, ३ इंच मोटी शर्करा जैसी वस्तु जम जाती है। परिहृच्छद का थैला उलट जाता है जिसमें हृदय बन्द हो जाता है और उसकी अतिपुष्टि रुक जाती है कभी कभी वपाजाल भी प्रभाव में आकर उसका गोलन ( rolled up) हो जाता है । फुफ्फुसच्छद निचले भाग में स्थूलित होता है। यह रोग जलोदर के साथ साथ देखा जाता है जब कि विभिन्न अभिलागों में जल भर जाता है। जीर्ण वृक्कपाक या यकृद्दाल्युत्कर्ष तथा जीर्ण मदात्यय के साथ यह रोग मिलता है। आयुर्वेदीय दृष्टिकोण आमाशय से लेकर मलाशय तक जितने प्रकार के व्रणशोथ ऊपर वर्णन किए गये हैं उनके विविध लक्षणों का विचार करते हुए हम यह पाते हैं कि एक दूसरे दृष्टिकोण को लेकर प्राचीन आचार्यों ने भी बहुत कुछ प्रदान किया है इतना ही कहना उचित समझते हैं कि अरुचि, अजीर्ण, अतीसार और ग्रहणी तथा जलोदर के प्रकरणों में आयुर्वेदज्ञों के द्वारा महास्रोत और उदरच्छदके व्रणशोथ का पर्याप्त विकास किया गया है। (९) यकृत् पर व्रणशोथ का प्रभाव यकृच्छोथ ( Hepatitis) साधारणतया यकृत् पर दो प्रकार से व्रणशोथ का प्रभाव पड़ता है । एक के कारण वैषिक यकृच्छोथ या वैषिक यकृत्पाक (toxic hepatitis) होता है और दूसरे के कारण औपसर्गिक यकृच्छोथ या औपसगिक यकृत्पाक ( infective hepatitis) होता है। वैषिक और औपसर्गिक दोनों यकृत् पाकों के तीव्र और For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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