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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ विकृतिविज्ञान नहीं मिलती । शेष दोनों में उण्डुकपुच्छपाक के कारण उदर में दक्षिण अधोभाग में कुछ वेदना की प्रतीति होती है । थोड़े थोड़े समय के पश्चात् होने वाली व्रणशोथात्मक प्रक्रिया के कारण उण्डुकपुच्छ की आकृति विकृत हो जाती है उसमें स्थान स्थान पर तन्तूत्कर्ष हो जाता है । उसकी श्लेष्मलकला अपुष्ट हो जाती है तथा उसके अङ्कुर ( villi ) नष्टप्रायः हो जाते हैं । उसकी लसाभ ऊति या तो अतिपुष्ट हो जाती है वा उसकी मात्रा घट जाती है । उसके उपश्लेष्मल भाग में तन्तूत्कर्ष तथा लसीकोशाओं की भरमार खूब मिलती है । उसके सुपिरक ( lumen ) में तान्तव अवरोध ( fibrous stricture ) मिलते हैं जो उपशमित व्रणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं । इन अवरोधों के पीछे श्लेष्मा का संग्रह होता रहता है जो श्लेष्मावृद्धि (mucocele) का कारण होता है । उण्डुकपुच्छ के ऊपर की उदरच्छदकला में स्थूलन ( thickening ) होने लगता है और वह समीपस्थ अंगों से या पश्चोदर प्राचीर से चिपका देती है । कभी कभी उण्डुकपुच्छपाक में श्लेष्मलकला कालबभ्रु ( deep brown ) वर्ण की भी मिल जाती है जिसे कूट काल्युत्कर्ष ( pseudomelanosis) कहा जाता है । स्थूलान्त्र के जीर्णव्रणशोथ में भी कूट कालयुत्कर्ष पाया जाता है । कहीं कहीं सम्पूर्ण उण्डुकपुच्छ में विकृतिजन्य विक्षत लम्बाई और मोटाई में सर्वत्र एक सहरा देखे जाते हैं । सुपिरक खुला हुआ मिलता है और उण्डुकपुच्छ लम्बी मिलती है उसकी प्राचीर अत्यधिक स्थूलित होती हैं क्योंकि उसके उपश्लेष्मलभाग में तन्तूत्कर्ष मिलता है और पेशी में अतिपुष्टि परन्तु यहां छोटे गोलकोशाओं की भरमार कम मिलती है । उदरच्छद पाक (Peritonitis ) उदरच्छद के द्वारा जितनी सतर्कता से उपसर्ग का दमन शरीर में होता है वैसा अन्यत्र नहीं देखा जाता है । यह कार्य वह तीन प्रकार से करता है । प्रथम वपाजाल ( omentum ) के द्वारा । वपाजाल अत्यधिक चलिष्णु होने के कारण जहां कहीं उदरच्छद में व्रणशोथ होता है यह वहां जाकर चिपक जाता है। जहां कहीं छिद्र होने की सम्भावना हुई कि यह वहां निग ( plug ) का काम कर देता है । यदि मूषकीय उदरच्छद में कुछ रोग जीवाणु प्रविष्ट कर दिये जायें तो थोड़े समय पश्चात् वे वहां न मिल कर वपाजाल में बँधे हुए पाये जायेंगे । द्वितीय उदरच्छदीय तलों के अभिलाग से । यदि उदरच्छद का कोई भाग सूज जाय या आघातयुक्त हो जाय तो वहां उदरच्छद के दोनों तल घंटे दो घण्टे में तन्त्वि के कारण अभिलग्न हो जाते हैं जिसके कारण उदरच्छद में किया गया छिद्र शीघ्र बन्द हो जाता है, कोई भी पूयकेन्द्र सीमित हो जाता है और सार्वत्रिक उदरच्छदकलापाक नहीं हो पाता । तृतीय उत्स्यन्द के द्वारा ( by exudation ) होता है । जब कभी उदरच्छद में कोई उपसर्ग आया कि उदरच्छदकला से एक ऐसा स्राव होने लगता है जो उपसर्गकारी जीवाणुओं के लिए कालस्वरूप तत्वयुक्त होता है। साथ ही यदि रोगी ने किन्हीं रोगाणुओं के विरुद्ध कुछ प्रतीकारकर तत्व बना लिये हों तो वे भी इस स्राव में प्रगट हो जाते हैं । इस कारण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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