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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव ११३ व्रणों के मध्य की श्लेष्मलकला का अतिचय ( hyperplasia ) होता रहता है । अतिचयित भाग श्लेष्मलकला को घेरे हुए देखे जाते हैं और अंकुरों या अपूपों के सदृश देखने में आते हैं। गुदभाग में ऐसे अनेक अंकुर देखे जाते हैं जिनके कारण साङ्कुरगुदपाक ( proctitis polyposa ) उसका नाम ही पड़ गया है । इन्हीं अङ्कुरों से आगे चलकर घातक कर्कटार्बुद की उत्पत्ति होती हुई देखी गई है। इन अतिचयित भागों में कभी कभी कालबभ्रुरङ्गक ( deep brown pigment) भी मिलता है जिसे स्थूलान्त्रिक कूट काल्युत्कर्ष ( pseudomelonosis coli) कहते हैं । इस रङ्ग की उत्पत्ति का कारण भी अभी तक अज्ञात है । उण्डुकपुच्छपाक ( Appendicitis ) उण्डुकपुच्छ जिसे आन्त्रपुच्छ भी कहा जाता है, उन सम्पूर्ण व्रणशोथात्मक प्रक्रियाओं द्वारा प्रभावित हो सकती है जिनसे उण्डुक स्वयं प्रभावित होता है जिनमें आन्त्रिक ज्वर या मन्थर, कवक एवं यक्ष्मा प्रमुख है । परन्तु उसमें स्थानिक पाक भी हो सकता है जो तीव्र अनुतीव्र और जीर्ण किसी भी स्वरूप का हो सकता है । तीव्र पाक के कारणभूत दो जीवाणु विशेष हैं एक मालागोलाणु और दूसरा आन्त्रदण्डाणु (B.coli) । ये दोनों एक साथ या पृथक् पृथक् तीव्र पाक उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखते हैं । मन्थर ज्वर का दण्डाणु उपश्लैष्मिक लसाभ ऊति पर आक्रमण करता है जो उण्डुक पुच्छ में प्रचुर मात्रा में पाई जाती है इस कारण वह भी अनेक व्रणोत्पत्ति करके तीव्रावस्था का कारण बन जा सकता है । विकृतिवेत्ताओं का अनुमान यह है कि उण्डुकपुच्छपाक हमारी आधुनिक सभ्यता की प्रमुख "देन है । जितना हम आहार्य पदार्थों को छील छानकर लेते हैं उतना ही यह हमें अधिक सताता है इसी कारण असभ्य कहाने वाली जातियों में तथा वानरों और वनमानुषों में यह देखा तक नहीं जाता । विगत ५० वर्षों में यह जितना भीषण हुआ है उतना पहले कभी नहीं था । यह तथ्य भी इसका और आधुनिक सभ्यता का सम्बन्ध स्थापित करने में विशेष भाग लेता है । उण्डुकपुच्छपाक शिशुओं, बालकों तथा वृद्धों को नहीं सताता है । उसका प्रमुख लक्ष्य नवयुवक, नवयुवती, तरुण और अधेड़ व्यक्ति रहते हैं । ज्यों ही उण्डुकपुच्छ का मुख बन्द हो जावेगा और उसके अन्दर के पदार्थों का सम्बन्ध तथा आवागमन उडुक से बन्द हो जावेगा या ज्यों ही उण्डुकपुच्छ की रक्तपूर्ति में बाधा पड़ेगी त्यों ही उसमें व्रणशोथ होने लगता है । विवरावरोध के मलाश्म ( faecolith) उसे बन्द कर सकता है या विवर के चारों ओर के पेशीतन्तुओं में आक्षेप ( spasm ) होकर भी अवरोध हो सकता है । कभी कभी मुख पर अनुतीव्र पाक होने से तान्तव ऊति का निर्माण होने से विवर अत्यधिक संकुचित होता हुआ देखा जा सकता है । रक्तपूर्ति में बाधा पड़ने के भी कई कारण हो सकते हैं जिनमें उसका ऐंठा खाजाना ( kinking ) एक है, रक्तवाहिनियों की अनेक कारण हो सकते हैं । कोई 1 For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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