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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रस्तावना आयुर्वेदतत्त्वमर्मज्ञ श्री डा० शिवनाथ खन्ना एम. बी. बी. एस., डी. पी. एच. रीडर इन पैथालोजी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदीय पत्रकारिता में नवयुग के निर्माणकर्त्ता, आयुर्वेदीय साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक, काशी हिन्दूविश्वविद्यालय में आयुर्वेदानुसंधान के सचिव, व्याख्याता और सहयोगी तथा मेरे कतिपय उन शिष्यों में एक जिनके नाम से मैं गौरव का अनुभव करता हूँ श्री पं० रघुवीरप्रसाद त्रिवेदी आयुर्वेदाचार्य द्वारा लिखित इस सुन्दर और उपादेय ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखने में मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है । श्री त्रिवेदी समन्वयवाद के समर्थक हैं । वे एक आयुर्वेदीय महाविद्यालय के स्नातक को अर्वाचीन और प्राचीन दोनों ही विचारकों के द्वारा प्रदत्त ज्ञान से पूर्ण परिचित देखना चाहते हैं । उनके प्रायः सभी ग्रन्थ मेरे कथन की सत्यता प्रमाणित करते हैं। अभिनव विकृति विज्ञान उसी शृङ्खला की एक सुदृढ़ कड़ी बनकर टिकेगा इसका मुझे विश्वास है । इस ग्रन्थ में आधुनिक पैथोलोजी सामान्य और विशिष्ट को इस योग्यता के साथ सुयोग्य लेखक ने प्रस्तुत किया है कि सम्पूर्ण विषय मानो इस प्रमुख भेद को भूलकर एक रस हो गया है । स्थान-स्थान पर आयुर्वेदीय वैकारिकी के साथ तुलना और उसका यथावत् स्पष्टीकरण इस सरलता और भावबोधक व्यञ्जना से किया गया है कि विषय की दुरूहता खटकना बन्द ही नहीं कर देती अपितु वैज्ञानिकता ने किसी साहित्यकार का आधार पा लिया हो ऐसा प्रतीत होने लगता है जिसके कारण सभी विषय रोचक और खोजपूर्ण तथा अद्ययावत् ( अपटूडेट ) ज्ञान से ओतप्रोत प्रकट होते हैं । ww प्राचीन महर्षियों ने मानव को दुःख से मुक्त करने के लिए जितने आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयत्न किए उससे कम भौतिक क्षेत्र में नहीं किए। यह मानव शरीर युगानुयुग की तपश्चर्या से प्राप्त होता है । इसका सदुपयोग करके सदैव के लिए कष्ट से परित्राण का मार्ग जहाँ एक भारतीय दार्शनिक खोजता है वहीं इस शरीर को भौतिक कष्टों से, बीमारियों से, आपत्ति से बचाकर निरामय और नीरोग बनाकर इतना लम्बा कर देने का सुझाव एक भारतीय चिकित्सक देता है जिस कालावधि में मानव अपनी साधना समाप्त कर नश्वर माया के आवरण को भेद कर जीव और परब्रह्म के अभेद का साक्षात्कार कर जन्म-मरण के संकट से सदैव के लिए त्राण पा सके। इस सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए आयुर्वेदीय शास्त्र की रचना पुराकाल से आज तक होती आई है। आयुर्वेद शब्द स्वयं इसका प्रमाण है कि इसके द्वारा मानव की आयु का संवर्धन परिपोषण और संरक्षण करना ही अभिलक्षित है । भगवान् पुनर्वसु आत्रेय का यह वाक्य किस मनीषी को विभोर नहीं कर देता प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनश्च । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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