SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १०१ ४. शौषिरश्वयथुर्दन्तमूलेषु रुजावान् कफरक्तजः । लालास्रावी स विज्ञेयः कण्डूमान् शौपिरो गदः ॥ यह दन्तमूल शोथ है। ५. महाशौषिर--- दन्ताश्चलन्ति वेष्टेभ्यस्तालु चाप्यवदीर्यते । दन्तमांसानि पच्यन्ते मुखं च परिपीड्यते । यस्मिन् स सर्वजो व्याधिर्महाशौषिरसंज्ञकः॥ यह कैक्रम ओरिस ( canerum oris ) सकोथमुखपाक है । ६. परिदरदन्तमांसानि शीर्यन्ते यस्मिन् ष्ठीवति चाप्यसक् । पित्तामुक्कफजो व्याधिशेयः परिदरो हि सः॥ यह दन्तमूलगत ऊतियों के नष्ट होने का दृश्य है। ७. उपकुशवेष्टेषु दाहः पाकश्च तेभ्यो दन्ताश्चलन्ति च । आघट्टिताः प्रस्रवन्ति शोणितं मन्दवेदनाः॥ आध्मायन्ते सुते रक्ते मुखं पूति च जायते । यस्मिन्नुपकुशः स स्यात् पित्तरक्तकृतो गदः ॥ इसी का यथावत् वर्णन एक अंग्रेज ने निम्न शब्दों में किया है: Gingivitis or inflammation of the gums is a subacute or chronic condition......... the breath is foul, while the gums become swollen, shaggy or congested; they bleed easily and may have shallow ulcers upon them, while the teeth become loose and may fall out. स्पंजी गम्स ( spongy gums ) के लिए आध्मायन्त शब्द का प्रयोग विशेष ध्यान देने योग्य है। शुद्ध दन्तमूलपाक को उपकुश शब्द द्वारा अभिव्यक्त करना पूर्णतः उपयुक्त है। ८. वैदर्भघृष्टेषु दन्तमूलेषु संरम्भो जायते महान् । भवन्ति च चला दन्ताः स वैदर्भोऽभिघातजः ॥ यह अभिघातज दन्तमांसपाक (traumatic gingivitis ) का वर्णन है। दन्तवेष्ट या पायोरिया एल्विओलैरिस का जो वर्णन ऊपर दिया है वह बहुत सूक्ष्म है। यह रोग वयस्क या प्रौढों को होता है। ३० वर्ष के पश्चात् इस रोग से पीडित अनेक स्त्री पुरुष देखे जाते हैं। इस रोग के कारण का अभी तक कुछ पता नहीं चलता क्योंकि इसके पूय में अनेकों जोवाणु (मालागोलाणु, अधिकुन्तलाणु, दन्तमांस अन्तःकामरूपी-endamoeba. gingivitis ) मिलते हैं। कुछ का ऐसा मत है कि वृद्धावस्था के कारण दन्तमांस दन्तमूल को छोड़कर सिकुड़ता है उसी के कारण उसमें द्वितीयक उपसर्ग के रूप में ये जीवाणु सब या कुछ दन्तवेष्टोत्पत्ति कर देते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy