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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३ विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव में इस रोग का कारण सर्वथा भिन्न होता है शस्त्रकर्म होने पर या आघात लगने पर, अस्थिभग्न के कारण जब उनको बहुत समय तक शैया पर रहना पड़ता है या वृक्कपाकादि व्रणशोथ शरीर के किसी भाग में रहता है तो उनको यह रोग लग जाता है। इस रोग का कारण फुफ्फुस गोलाणु ( pneumococcus ) है तथा मालागोलाणु, पुंज गोलाणु, प्रतिश्याय शोणप्रियाणु ( H. influenzae) भी इसके कारण होते हैं। प्रायशः इस रोग में उपसर्ग का कारण एक जीवाणु न होकर कई एक जीवाणु का मिश्रण होता है। - फुफ्फुस में श्वासनलिकाएं दो प्रकार की होती हैं। एक वे जिनमें कास्थि या तरुणास्थि होती है और जिनका व्यास १ मिलीमीटर से अधिक होता है इन्हें श्वासनाल ( bronchi) या श्वास प्रणाली कहते हैं दूसरी वे होती हैं जो पूर्णतः मांसपेशियों के द्वारा ही निर्मित होती हैं और जिनका व्यास १ मिलीमीटर से कम होता है इन्हें श्वसनिका ( bronchiole ) कहते हैं। खण्डिकीय फुफ्फुसपाक इन श्वसनिकाओं का ही पाक होता है। एक श्वसनिका के साथ जितना भी फुफ्फुस का अंश लगा होता है उसमें भी पाक हो जाता है। श्वसनिका के साथ संलग्न फुफ्फुस अति प्रायः अपसरण ( divergence ) करती हुई होती है अतः पाक का क्षेत्र त्रिकोणाकार होता है। कभी कभी इस रोग के साथ साथ श्वास नाल में भी पाक देखा जाता है पर वह पाक इस रोग के साथ सदैव होना आवश्यक नहीं है। वह तो खण्डिकीय फफ्फसपाक के उपरान्त होने वाला उपद्रव है। इस रोग में उपसर्ग प्रधानतया ऊर्ध्वश्वसन मार्ग द्वारा ही लगता है और चंकि श्वसन की नलियां एक दूसरे से सम्बद्ध हैं अतः उपसर्ग लगते देर नहीं लगती। ___ यदि किसी खण्डिकीय फुफ्फुसपाक से पीडित व्यक्ति के व्याधिग्रस्त सिध्म ( patch) का सूचम निरीक्षण किया जावे तो उसमें निम्न तीन विक्षत देखने को मिलते हैं: १. अनुकेन्द्रपाकी श्वसनिका ( centrally inflammed bronchiole ), जिसके चारों ओर घनीभूत फुफ्फुस ऊति होती है। २. मध्यवर्ती क्षेत्र जहां के वायुकोशा समवसादित (collapsed ) होते हैं । ३. बाह्यक्षेत्र जहां वायुकोशा विस्फारित होते हैं। मृत्यूत्तर परीक्षा करने के लिए जब खण्डिकीय श्वसनक से मृत शव के फुफ्फुस निकाल कर देखे जाते हैं तो वे स्वाभाविक से अधिक भरे हुए प्रकट होते हैं। उनका बाह्य धरातल विषम होता है उसमें इतस्ततः विवर्ण सिध्म पाये जाते हैं। बीच बीच के स्थान चमकदार, नीलाभ, कुछ दबे से तथा चिकने होते हैं ये समवसादित वायुकोशाओं के क्षेत्र हैं। उनके समवसादन का कारण स्राव द्वारा श्वसनिकाओं का भर जाना माना जाता है। कुछ भागों का रंग लाल होता है वे धरातल से उठे हुए होते For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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