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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ विकृतिविज्ञान सितकोशा ले लेते हैं। विज्ञतों से कुछ हटकर अन्तश्छद में प्रक्षोभ के कारण परमचय (hyperplasia ) होने लगता है । इस विनाशकारिणी प्रवृत्ति के कारण वाहिनी का विदार या विस्फार होने लगता है । जिसके कारण रक्तष्ठीवन, रक्तवमन या रक्तमेह के लक्षण देखे जाते हैं । ये लक्षण इस विदार की स्थिति के अनुसार होते हैं । यदि यहां हम सुश्रुतोक्त रक्तपित्त की सम्प्राप्ति का स्मरण करें तो बहुत कुछ मिल जाता है :---- 1 पित्तं विदग्धं स्वगुणैर्विदहत्याशु शोणितम् । ततः प्रवर्तते रक्तमूर्ध्व चाधो द्विधाऽपि वा ॥ पर लगण्ड बहुधमनीपाक ही रक्तपित्त हो ऐसा नहीं अपि तु इस रोग में रक्तपित्त का लक्षण मिलता है, वह क्यों ? उसे समझाने के लिये उपरोक्त उद्धरण रखा गया है । . अभिलोपी अन्तःधमनीपाक एक प्रकार की जीर्ण व्याधि है जिसमें धमनी के आन्तरचोल में कोशाओं का प्रगुणन ( proliferation ) होने लगता है जिसके आगे उनमें तन्तूत्कर्ष हो जाता है । आन्तरचोल में कोशाओं के बढ़ने से धमनी का मुख धीरे धीरे छोटा होने लगता है, जब बहुत छोटा हो जाता है तो फिर एक घनात्र बन कर उसका मुख पूरी तरह से बन्द कर देता है । यह रोग स्वाभाविक रूप से भी होता है तथा विकारजनित भी है। प्रसव के उपरान्त शिशु की कई उन धमनियों में यह देखा जाता है जो माता से गर्भ के लिए रक्त लाया करती थीं। प्रसव के उपरान्त गर्भाशय का संकोच ( inovution ) प्रारम्भ हो जाता है उस अवस्था में कई धमनियों में स्वाभाविक रूप से यह देखा जाता है। वृद्धावस्था में स्त्रियों के प्रजननाङ्गों को रक्तप्राप्ति कम करने में यही विधि सिद्ध होती है । व्रण की रोपणावस्था जब पूर्ण हो जाती है तो कणात्मक ऊति की धमनियों में यही क्रिया होती है । विकारजनित अवस्था में कुछ ऐसे व्रणों में भी यह होती है जो कभी भरते नहीं जैसे कौटिल्य सिरा ( varicose ulcers ), आमाशयिकवण | अर्बुदों की धमनियों में भी यह मिलता है । यक्ष्मा और फिरङ्ग के विक्षतों में भी यह देखा जाता है । प्रायः यह छोटी धमनियों का रोग है । वृक्क, मस्तिष्क तथा हस्त पाद परिणाह की वाहिनियों एवं उनकी शाखाओं तथा बड़ी धमनी - प्राचीरों को रक्त प्रदान करने वाली धमनियों में यह मिलता है । यह एक प्रक्रिया है जो पूर्णतः व्रणशोथात्मक नहीं होती । For Private and Personal Use Only यह कोई आवश्यक नहीं कि धमनीमुख पूर्णतः बन्द हो जावे । धमनी के आन्तर प्रदेश में कोशाओं का प्रगुणन होते रहने से धमनीमुख छोटा पड़ जाता है । प्रसवोपरान्त जब गर्भाशय को अधिक रक्त की आवश्यकता नहीं रहती तब इस प्रक्रिया से धमनीमुख बहुत छोटे हो जाते हैं जिसके कारण बहुत कम रक्त ही उनमें होकर बहता है और गर्भाशय सिकुड़ता चला जाता है ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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