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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६८ विकृतिविज्ञान (अष्टाड हदय) अंग अकर्मण्य हो जाता है और उसकी चेतता शक्ति नष्ट या कम हो जाती है। वह वातव्याधि से पीडित व्यक्ति अधिक गम्भीरावस्था होने पर या आगे चलकर प्राणों को भी त्याग देता है। ४८-पाण्डुरोगपित्तप्रधानाः कुपिता यथोक्तैः कोपनर्मलाः । तत्रानिलेन बलिना क्षिप्तं पित्तं हृदि स्थितम् ॥ धमनीर्दशसम्प्राप्य व्याप्नुवत्सकलां तनुम् । श्लेष्मत्वग्रक्तमांसानि प्रदूष्यान्तरमाश्रितम् ॥ त्वङ्मांसयोस्तत्कुरुते त्वचि वर्णान् पृथग्विधान्। पाण्डूहारिद्रहरितान् पाण्डुत्वं तेषु चाधिकम् ।। यतोऽतः पाण्डुरित्युक्तः स रोगः-। प्रधानतया पित्त से युक्त दोष यथोक्त दोष कोपक हेतुओं के द्वारा कुपित होते हैं। सब दोषों में वायु अधिक बलवान् सदा ही रहने के कारण वह इस प्रवृद्ध पित्त को जो हृदय में स्थित है दशों धमनियों में फेंक देता है । इस कारण वह सम्पूर्ण शरीर में (मलमूत्र स्वेदादिक में भी) व्याप्त हो जाता है । श्लेष्मा, त्वचा, रक्त तथा मांस को दुष्ट करता हुआ वह पित्त त्वचा और मांस के अन्तर में स्थित होकर त्वचा को विविध वर्ण का बना देता है। पाण्डु-हारिद्र-हरिद्वर्ण का कर देता है। पाण्डुत्व की अधिकता होने से इसे पाण्डुरोग कहा जाता है। ४९-प्रतिश्याय चयं गता मूर्द्धनि मारुतादयः पृथक् समस्ताश्च तथैव शोणितम् । प्रकोप्यमाणा विविधैः प्रकोपणैर्नृणां प्रतिश्यायकरा भवन्ति हि ॥ (सुश्रुत उ. तं.) वातादिक दोष जब शिर के भीतर अकेले-अकेले अथवा मिलकर संचित हो जाते हैं इसी प्रकार रक्तदोष का भी जब संचय हो जाता है तो वे ही विविध प्रकोपक कारणों की उपस्थिति होने पर मनुष्यों को प्रतिश्याय उत्पन्न कर देते हैं। ५०-प्रमेह मेदश्च मांसञ्च शरीरजञ्च क्लेदं कफो वस्तिगतं प्रदृष्य । करोति महान् समुदीर्णमुष्णैस्तानेव पित्तं परिदृष्य चापि ॥ क्षीणेषु दोषेष्ववकृष्य बस्तौ धातून् प्रमेहान् कुरुतेऽनिलश्च । दोषो हि बस्ति समुपेत्य मूत्रं सन्दूष्य मेहान् कुरुते यथास्वम् ॥ (चरक चि. स्था.) विविध कारणों से कुपित कफदोष बस्तिगत मेद , मांस तथा शरीरस्थ क्लेद को दूषित करके कफज प्रमेह को, पित्तदोष जो उष्ण पदार्थों के सेवन से कुपित हुआ है बस्तिस्थ मेद, मांस और शरीरज क्लेद को दूषित करके पित्तज प्रमेह को तथा पित्त और कफ के क्षीण होने पर वायु धातुओं को बस्ति में खींचकर वातज प्रमेह को उत्पन्न करता है। इस प्रकार कुपित दोष बस्ति में पहुँचकर मूत्र को दूषित रूप में उत्पन्न करके ही विविध प्रकार के प्रमेहों को उत्पन्न करते हैं। ५१-प्लीहोदरअत्याशितस्य संक्षोभाद् यानायानातिचेष्टितैः। अतिव्यवायभाराध्ववमनव्याधिकर्षणैः॥ वामपार्थाश्रितः प्लीहा च्युतः स्थानात् प्रवर्द्धते । शोणितं वा रसादिभ्यो विवृद्धं तं विवर्द्धयेत् ॥ (चरक चि. स्था.) अत्यन्त खाये हुए मनुष्य का सवारी द्वारा या अन्य किसी प्रकार से शरीर को अधिक हिलाने, अत्यन्त मैथुन करना, भार ढोना, पैदल चलना, वमन और रोगों के द्वारा कृश होने से भी वामपार्श्वस्थ प्लीहा च्युत होकर बढ़ने लगती है। बिना च्युत हुए भी प्लीहा की वृद्धि का कारण उसमें रक्त अथवा रसधातु की वृद्धि होना होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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