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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव अनुतीव्र जीवाण्वीयहृदन्तश्छदपाक (Subacute Bacterial Endocarditis) आमवातजन्य हृत्कपाटों पर शीघ्र ही या वर्षों पश्चात् लगभग ८० प्रतिशत रुग्णों में शोणहरित मालागोलाणुओं का उपसर्ग लगने से यह विकार होता है। यह मालागोलाणु रक्त की धारा में उपस्थित रहता है और वहां से अस्काफ ग्रन्थियों में या उनके द्वारा नष्ट प्रदेश में प्रवेश कर जाता है। आमवात के अतिरिक्त यदि दूसरा कोई कारण इस रोग का उत्पादक हो सकता है तो वह हृदय की सहज विकृति (congenital deformity of the heart ) ही हो सकती है। आमवातोत्थ उपसर्ग का प्रभाव द्विपत्रकीय कपाट पर सर्वाधिक फिर वामालिन्द का पश्चपार्श्व क्षेत्र, तत्पश्चात् महाधमनी के कपाटों पर पड़ता है। तथा अन्य प्रकार से होने पर महाधमनी का द्विपत्रकीय कपाट विशेष प्रभावित होता है । ___शोणहरित मालागोलाणु रक्त में किस प्रकार पहुंचते हैं इसके सम्बन्ध में बताया जाता है कि पहले उनका कोई पूतिकेन्द्र ( septic focus ) दांतों, तुण्डिका-ग्रंथियों या गलतोरणिकाओं में बन जाता है और वहीं से वे रक्त को दूषित करने में समर्थ होते हैं। साधारण ज्वर के रक्त की परीक्षा करने पर भी कभी कभी ग्राहम और डैरवीलर नामक विद्वानों ने इस मालागोलाणु को बिना किसी अन्य पूतिकेन्द्र के भी पाया है। ___ इस मालागोलाणु द्वारा जब हृदय उपस्रष्ट हो जाता है तो यदि इसके विनाशक नवीन द्रव्यों का यथोचित उपयोग न किया गया तो रोगी ॥२ साल तक ही जी सकता है। ___जीवाण्वीय हृदन्तश्छद पाक में जो व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया देखी जाती है वह आमवातज हृदन्तश्छदपाक से पर्याप्त भिन्न होती है। इसके उभेद प्रायः बड़े तथा तम्वि तथा बिम्बाणु दोनों के द्वारा निर्मित होते हैं, वे सुगमतया टूट जाते हैं, उनके टूटे हुए भाग विभिन्न अङ्गों में जाकर ऋणास्र ( infarcts) बनाने में समर्थ होते हैं तथा इन भागों में बहुत से मालागोलाणु भरे होते हैं। यदि रोगी ६ मास या उससे अधिक काल तक जीवित रहा तो उद्भेद के आधार तन्तूत्कर्ष के कारण समङ्गीकृत (organised) हो जाते हैं। ____ यदि उभेद की आन्तरिक रचना की ओर ध्यान दें तो हमें उसकी टोपी के रूप में तन्त्विमय ( fibrinous ) पदार्थ मिलेगा। टोपी के नीचे कणात्मक ऊति मिलेगी जिसका आधार तान्तव ऊति का बना होगा। इस उभेद के धरातल पर तन्त्वि रक्तधारा में से निकल निकल कर बराबर चढ़ती रहती है। उद्भेद के समीप ही बहुत से एकन्यष्टिकोशा तथा लसीकोशा तथा कुछ बहुन्यष्टिसितकोशा पाये जाते हैं। .. इन उद्भेदों के द्वारा न केवल वामहृदय के कपाट तथा हृदज्जु ही आवृत रहते हैं अपि तु वामालिन्द की सम्पूर्ण हृदन्तश्छद पर ज्यों ज्यों रोग में वृद्धि होती जाती है - स्यों त्यों ये उभेद बढ़ते हुए चले जाते हैं। हृत्कपाटों में रोग का सबसे अधिक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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