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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०३० विकृतिविज्ञान प्रतिरोगाण्वीय प्रतिद्रव्यों की उत्पत्ति रोगाणुओं और उनके अन्तर्विषों के अन्त. - निःक्षेपण के कारण होती है। इनका वर्गीकरण इनकी उस क्रिया के आधार पर होता है जिसको वे प्रतिजन के मिलने पर प्रकट करती हैं। उदाहरण के लिए यदि इनके द्वारा जीवाणुओं का समूहन होता है इन्हें प्रसमूहि (agglutinin ) कहते हैं । प्रसमूहीकरण करने वाली प्रतिजन भी प्रसमूहिजन (agglutinogen) कहलाती है प्रसमूहन की प्रतिक्रियाओं के द्वारा कई रोगों का निदान सरलता से हो जाता है । आन्न्रज्वर, अध्यान्न्रज्वर ( Paratyphoid), ज्वरातीसार ( Bacillary dysentery ). विसूचिका का ज्ञान प्रसमूहन के कारण ही होता है। रक्त की लसी में प्रसमूहियाँ कभी तो रोग होते ही प्रकट हो जाती हैं और कभी कुछ विलम्ब से प्रकट होती हैं । अतः जब तक वे उत्पन्न न हो जायँ तब तक प्रसमूहन द्वारा परीक्षा सफल नहीं होती । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जब प्रतिरोगाण्वीय प्रतिद्रव्ययुक्त किसी प्रतिलसी को किसी रोगाणु के संवर्ध को छानकर उस तरल में मिलाया जावे और ऐसा करने से वह तरल जम जाय या निस्सादित ( precipiteted ) हो जाय तब वह प्रतिद्रव्य निस्सादि ( preoipitin ) कहलावेगा । प्रसमूहियाँ तथा निस्सादियाँ यद्यपि एक नहीं हैं परन्तु फिर भी वे आपस में एक दूसरे से पर्याप्त समानता रखती हैं। क्योंकि जिन रोगों में प्रसमूहनपरीक्षा सम्भव है उन्हीं में निस्सादन भी सम्भव है । कभी कभी अन्य जीवाणुओं की उपस्थिति के कारण जब प्रसमूहन नहीं हो पाता उस समय निस्सादन सरलता से हो जाता है। रोगाणुओं को छोड़ अन्य प्रोभूजिन उत्पादों पर भी निस्सादन क्रिया की जा सकती है । जैसे रक्त के सूखे हुए धब्बे की परीक्षा निस्सादन द्वारा सम्भव होती है। 1 कुछ प्रतिद्रव्य प्रतिजनों का अंशन कर देते हैं, अर्थात् उन्हें घुला डालते हैं । इन्हें व्यंशि (lysins) कहते हैं । व्यंशियाँ प्रोभूजिन को घुलाने वाली होती हैं । इन्हें शाकाण्वंशियाँ ( bacteriolysins ), शोणांशियाँ ( heemolysins ) अथवा कोशांशियाँ ( cytolysins ) आदि नामों से पुकारते हैं । जितने भी रोगाणु होते हैं उनके शरीर किसी न किसी प्रोभूजिन द्वारा बनते हैं । ये प्रोभूजिन अपने शरीर की दृष्टि से विदेशीय होते हैं अतः इनको बुलाने के लिए शरीर में विविध व्यंशियों की उत्पत्ति होती है । जब कभी एक प्राणी को दूसरे प्राणी का रक्त दिया जाता है तो रक्त के लाल कर्णो की प्रोभूजिन यदि दूसरे प्राणी के लिए विदेशीय हुई तो उनका अंशन प्रारम्भ हो जाता है । व्यंशि की क्रिया सदैव अविशिष्ट पूरक ( non-speeific complement ) पर ही होती है। बिना अविशिष्ट पूरक की उपस्थिति के प्रतिजन पर इसकी कोई क्रिया नहीं देखी जाती । उसका कारण यह है कि व्यंशि सदैव दो वस्तुओं की एक साथ आकांक्षा करती है- एक प्रतिजन और दूसरी पूरक । व्यंशियों को द्विग्राही ( amboceptor ) वर्ग का माना जाता है । यह वर्ग सदैव विशिष्ट होता है। और ५६° तक तपाने से भी नष्ट नहीं होता । व्यंशियों से कई रोगों का निदान किया जाता है जिनमें फिरंग मुख्य है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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