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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि वैकारिकी १०१७ परिणाम शेष चारों बातों तथा दोनों दोषों पर भी पड़ता है जिसके कारण समानोदानप्राणव्यानपित्तश्लेष्मदोष कुपित हो जाते हैं। इनके कोप के कारण ही ऊपर लिखे १८ परिच्छेदों में प्रकट उपद्रवों को उत्पन्न करने में वे समर्थ होते हैं। अर्श का स्थान (१) सर्वेषां चार्शसा क्षेत्रं-गुदस्यार्धपञ्चमाङ्गुलेऽवकाशे त्रिभागान्तरास्तिस्रो गुदवलयः, क्षेत्रमिति देशः । केचित्त भूयांसमेव देशमुपदिशन्त्यशंसां शिश्नमपत्यपथं गलमुखनासिकाकर्णाक्षिवानि त्वक् च । तदस्त्यधिमांसदेशतया गुदवलिजानां त्वर्शासीति संज्ञा तन्त्रेऽस्मिन् । (चरक ) (२) तत्र स्थूलान्त्रप्रतिवद्धमर्धपञ्चाङ्गुलं गुदमाहुः, तस्मिन् वलयस्तिस्रोऽध्यर्धाकुलान्तरसम्भूताः प्रवाहणी विसर्जनी संवरणी चेति ॥ चतुरङ्गुलायताः सर्वास्तिर्यगेकाङ्गुलोच्छ्रिताः। शङ्खावर्तनिभाश्चापि उपर्युपरि संस्थिताः॥ गजतालुनिभाश्चापि वर्णतः सम्प्रकीर्तिताः । रोमान्तेभ्यो यवाध्य? गुदौष्ठः परिकीर्तितः ॥ प्रथमा तु गुदौष्ठादङ्गुलमात्रे ।। (सुश्रुत) सभी अशों का क्षेत्र गुद के निचले ४॥ अङ्गुल में समानान्तर पर रखी हुई प्रवाहणी, विसर्जनी तथा संवरणी नामक ३ गुदवड़ियाँ हैं। स्थूलान्त्र का सबसे निचला द्वार गुद कहलाता है। इस गुद में १॥-१॥ अङ्गुल के अन्तर से एक एक बलि रखी हुई है। प्रत्येक बलि की लम्बाई तिरछी ४ अङ्गुल है प्रत्येक की ऊँचाई १ अङ्गुल प्रमाण है। तीनों वलियाँ एक दूसरे के ऊपर शङ्खावर्त या पेच के समान रखी हुई हैं । इनका वर्ण गजतालु के समान लाल होता है। गुद के किनारे जहाँ बाल या रोम होते हैं वहाँ ( रोमान्त ) से १३ यव भीतर की ओर गुद के मुख को गुदौष्ठ कहा जाता है । इस गुदौष्ठ से १ अङ्गुल ऊपर प्रथम वलि होती है। वलियों में सबसे नीचे संवरणी होती है। उसके ऊपर १३ अङ्गुल दूर विसर्जनी और उसके १३ अङ्गुल ऊपर प्रवाहणी तृतीय गुदवलि होती है। गुदौष्ठ से १ अङ्गुल पर प्रथम १३ अङ्गुल पर द्वितीय और १३ ही अङ्गुल पर तृतीय वलि होने से तीनों वलियाँ ४ अङ्गुल के भीतर ही आ पड़ती हैं । यही ४ अङ्गुल अर्थोत्पादक क्षेत्र या स्थान जानना चाहिए। इसी कारण अर्शीयन्त्र की लम्बाई ४ अङ्गुल की कही गई है। __ अर्शसां गोस्तनाकारं यन्त्रकं चतुरङ्गुलम् । ( अ. हृ.) डा० घाणेकर का कथन है-यहाँ गुद का जो वर्णन मिलता है वह आधुनिक शारीर वर्णन के साथ ठीक ठीक मिलता है । इस चार अङ्गुल के स्थान में जो सिराएँ होती हैं वे रचना विशेषता के कारण विकृत हो जाती हैं और अर्श उत्पन्न होता है। __चरकसंहिता में जैसा कि ऊपर वर्णित है कई अन्य विद्वानों के मतों का उल्लेख करके गुद के अतिरिक्त शिश्न, योनि, गला, मुख, नासा, कान, आँखों के पलक और स्वचा को भी अर्श स्थानस्वीकार किया गया है। सुश्रुत ने इन स्थानों पर होने वाले जिन अर्शी का वर्णन किया है वह कर्कटार्बुदोत्पत्ति की ओर आयुर्वेदीय विचार को जितना प्रकट करता है अर्श की ओर नहीं । सम्भवतः कर्कट से निकलने वाले रक्तस्राव को देख कर उन्हें रक्तज अर्श का सन्देह हुआ हो । नीचे हम सुश्रुतोक्त गुदेतरक्षेत्रीय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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