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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१२ विकृतिविज्ञान है वह सफेद थोड़ा थोड़ा और शूल के साथ उतरता है। श्लेष्मोल्षण अर्श के मस्से स्पर्शसह होते हैं । पिच्छिल स्राव से ढंके रहते हैं ये सुप्त से होते हैं। ये स्थिरतया सूजे हुए होते हैं। इनमें खुजली बहुत होती है। इनसे निरन्तर श्वेत आपीत (पिञ्जरवर्ण), श्वेत, या रक्तवर्ण का पिच्छा झरता रहता है। वाग्भट के मत में न स्रवन्ति न भिद्यन्ते का पाठ है कि इनसे रक्तादिक कुछ भी झरता नहीं और न ये फटते हैं । तोडर न स्रवन्ति से रक्त का न झरना लेता है पिच्छास्नाव के सम्बन्ध में विरोध नहीं करता । पिच्छास्राव सुश्रुत और चरक दोनों स्वीकार करते हैं। शरीर के अन्य विभिन्न लक्षणों की दृष्टि से अक्षिकूट में विशेष शोथ ( भेल), अरुचि, अविपाक, (भेल), अपक्व मलत्याग (भेल), पायुबस्ति नाभि में परिवर्तिकावत् शूल ( वाग्भट) वंक्षण में आनाह (वाग्भट), विड्बन्ध, तोद, गतिमन्दता ( हारीत ) श्वास, कास, हृल्लास, प्रसेक, पीनस, मूत्रकृच्छू, शिरःशूल, शीतज्वर, क्लैब्य, अग्निमान्य, छर्दि, आमजदोष, परिकर्तिका, निष्ठीवन, प्रतिश्याय, गौरव, शोप, शोथ, पाण्डुरोग, अश्मरी, शर्करा, हृदयोपलेप, इन्द्रियोपलेप, मुखोपलेप, मुखमाधुर्य, प्रमेह, आदि में से कोई सा या कई या सभी विकार हो सकते हैं। मल में वसाभ कफ का जाना ( वाग्भट) या सश्लेष्म बहुत मात्रा में मांसधावन सदृश मल का आना (सुश्रुत ) अथवा गुरुपिच्छिल श्वेत वर्ण का मलमूत्र पाया जाना (चरक) यह भी कफार्श की विशेषताओं में से ही हैं । नख, नयन, दशन, वदन मूत्र पुरीषादि का श्वेत वर्णयुक्त हो जाना भी इस रोग में पाया जा सकता है। द्वन्द्वज अर्श __हेतुलक्षणसंसर्गाद्विद्याद्वन्द्वोल्बणानि च । निदान और लक्षणों के मेल से वातपैत्तिक, पित्तश्लैष्मिक अथवा वातश्लैष्मिक नाम द्वन्द्वज अर्श भी मिल सकते हैं। मिश्रितं द्वन्द्वजं ज्ञेयम् कहकर भी इनका उल्लेख मात्र किया गया है। बसवराजीयकार ने द्वन्द्वजार्शों को याप्य तथा कष्टसाध्य माना है द्वन्द्वजं याप्यकं चैव कृच्छ्रसाध्यं भिषग्वरैः । सुश्रुतसंहिता में यद्यपि षडासि भवन्ति वातपित्तकफशोणितसन्निपातैः सहजानि चेति । के द्वारा निदानस्थान अध्याय २ में वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, रक्तज, सन्निपातज और सहज इन ६ अर्श प्रकारों की गणना की गई है परन्तु उसी अध्याय में द्वन्द्वज अर्श के सम्बन्ध में इतना और लिखा गया है अर्शः तु दृश्यते रूपं यदा दोषद्वयस्य तु । संसर्ग तं विजानीयात् संसर्गः स च षड्विधः ॥ ___ जब अर्श दो दोषों के मेल से बनते हैं तो उस मेल को दोषसंसर्ग मानना चाहिए। यह दोषसंसर्ग ६ प्रकार का होता है। डल्हणाचार्य ने इन ६ का नाम निम्नलिखित दिया है१. वातपैत्तिक २. वातश्लैष्मिक ३. पित्तश्लैष्मिक ४. वातरक्तजन्य ५. पित्तरक्तजन्य ६. कफरक्तजन्य For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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