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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८२ विकृतिविज्ञान यह आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध तत्व है अतः उपर्युक्त ग्यारह की यह हेतु है यह उचित और विज्ञानसम्मत ही है। अग्नि की महत्ता का प्रतिष्ठापक सूत्र नीचे दिया जाता है__ शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरंजीवत्यनामयः । रोगी स्याद् विकृते मूलमग्निस्तस्मान्निरुच्यते॥ कि जब देहाग्नि शान्त हो जाती है तो प्राणी मर जाता है। जब वह समरूप में रहती है तो वह वर्षों नीरोग होकर जीता है। जब वह विकृत हो जाती है तब वह रोगी हो जाता है अतः अग्नि ही आयु आदि का मूलकारण है अर्थात् स्वास्थ्य का मूलाधार अग्नि है। जो अन्न देहधात्वादि का पोषक कहा जाता है वहाँ भी अग्नि ही उसका हेतु है क्योंकि अपक्व अन्न से रसादि धातुओं का पोषण नहीं हो सकता है। इसका विस्तार करते हुए चरक ने अन्न के पाचन के सम्बन्ध में निम्न सूत्र दिये हैं अन्नमादानकर्मा तु प्राणः कोष्ठं प्रकर्षति । तद्वैभिन्नसंघातं स्नेहेन मृदुतां गतम् ।। समानेनावधूतोऽग्निरुदीर्यः पवनेन तु । काले भुक्तं समं सम्यक् पचत्यायुर्विवृद्धये ॥ एवं रसमलायान्नमाशयस्थमधःस्थितः । पचत्यग्निर्यथा स्थाल्यामोदन याम्बुतण्डुलम् ।। अन्नस्य भुक्तमात्रस्य षड्रसस्य प्रपाकतः । मधुरराख्यात् कफो भावात् फेनभाव उदीर्यते ॥ परन्तु पच्यमानस्य विदग्धस्याम्लभावतः। आशयाच्च्यवमानस्य पित्तमच्छमुदीर्यते ।। पक्काशयन्तु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वह्निना । परिपिण्डितपक्कस्य वायुः स्यात्कटुभावतः ।। अन्न के पाचन में निम्न क्रियाएँ होती हैं: १. आदानकर्म वाला प्राणवायु है अर्थात् उसका कार्य पानाहारादिक को अपनी ओर खींचना है। वह जिस अन्न को हम खाते हैं उसे मुख द्वारा कोष्ठ के भीतर ले जाता है। २. वहाँ पर स्थित द्रवभाग उस अन्न के एक एक अवयव को शिथिल कर देता है । अर्थात् जैसे रोटी को पानी में डालने से थोड़ी देर बाद उसका एक एक कण बिखर जाता है उसी प्रकार आमाशय में स्थित क्लेदक कफ नामक तरल से सम्पूर्ण खादित अन्न अपने संगठन को छोड़ छिन्न भिन्न हो जाता है। ३. अवयवशैथिल्य के साथ साथ आमाशय में स्थित स्नेहांश उसे मृदु बना देता है। ४. अब समानवायु जो आमाशय में निवास करती है और जिसका कार्य ही अन्न का पचाना है वह समय पाकर अर्थात् जब व्यक्ति को भूख लगती है तब उदरस्थित अग्नि को उठा देती है। ५. यह जाठराग्नि यदि अपने समयोग या अविकृतावस्था में है तो आयुवर्द्धनाय उस अन्न को भले प्रकार पचा देती है। इस प्रकार आहारपाचन में आमाशयस्थ द्रव, स्नेहांश, समानवायु, काल और अग्नि का समयोग परमावश्यक होता है। जाठराग्नि उसी प्रकार रस और किट्टभाग के लिए उदरस्थ अन्न का पाचन करती है जिस प्रकार भात बनाने के लिए चूल्हे की अग्नि । षडूस-अन्न के मुख में ग्रहण करते ही उसका मधुररसप्रधान भाग सर्वप्रथम For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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