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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७८ विकृतिविज्ञान अर्थात् अतिशोक के कारण उत्पन्न, अत्यधिक रक्तमिश्रित, अत्युष्ण मल से युक्त आध्मान, शूलयुक्त मलत्याग का होना तृष्णादि उपद्रव और अरुचि से ग्रस्त और क्षीण स्वरी रोगी को अतीसार नष्ट कर देता है। __ बालक, अतिशय वृद्ध, अत्यन्त कृश, दुर्बल और सूखे हुए रोगी को अतिसार सदैव कष्टकारक माना गया है तथा ऐसा रोगी वैद्य को छोड़ देना चाहिए । इसी प्रकार जिस अतीसारी का मल घृत, प्लीहा, शहद, वसा, यकृत् , तैल, जल, दुग्ध, दही या तक के समान आता हो उनका भी परित्याग ही कर देना चाहिए। (६) शोकातीसार शोक के कारण उत्पन्न अतीसार का वर्णन सुश्रुत ने बड़े सुन्दर शब्दों में किया है तैस्तै वैः शोचतोऽल्पाशनस्य बाष्पोष्मा वै वह्निमाविश्य जन्तोः । कोष्ठं गत्वा क्षोभयेत्तस्य रक्तं तच्चाधस्तात्काकणन्ती प्रकाशम् ॥ निर्गच्छे? विड्विमिश्रं ह्यविड्वा निर्गन्धं वा गन्धवद्वातिसारः । शोकोत्पन्नो दुश्चिकित्स्योऽतिमात्रं रोगो वैधैः कष्ट एष प्रदिष्टः ।। अर्थात् धन, बन्धु, प्रिय जनों के नाश के कारण शोक करने से, बहुत थोड़ा भोजन करने वाले के नेत्र-नासा-गल-स्थानादि से निकलनेवाले जल से उत्पन्न ऊष्मा व्यक्ति को व्याकुल करके कोष्ठ में जाकर उसके रक्त को प्रक्षुब्ध कर देती है। उसके कारण गुदमार्ग से काकणन्ती (गुञ्जा) सदृश वर्ण का मल के साथ मिलकर दुर्गन्धयुक्त या गन्धरहित अतीसार चल पड़ता है। यह शोकोत्पन्न अतिसार अधिक होने पर दुश्चिकित्स्य या कष्टसाध्य कहा जाता है। क्योंकि शोकोत्पन्न रोग शोक के कारण दूर होने पर ही जा सकता है। साधारणतः ओषधियाँ अधिक कार्य नहीं करतीं। (७) भयज अतीसार शोकातिसार तथा भयज अतिसार ये दोनों आगन्तुज अतीसार कहलाते हैं और दोनों का सम्बन्ध मन से कहा गया है : आगन्तु द्वावतीसारौ मानसौ भयशोकजौ। तत्तयोर्लक्षणं वायोर्यदतीसारलक्षणम् ।। अर्थात् दो भय-शोकज अतीसार मानस हैं और आगन्तुज अतीसार के नाम से विख्यात हैं। उनका लक्षण वातातीसार के समान बतलाया गया है। ___ अष्टाङ्गसंग्रहकार ने भयज अतीसार को वातपित्तसम माना है और तद्वत् शोकज अतीसार को कहा है भयेन क्षोभिते चित्ते सपित्तो द्रावयेच्छकृत् । वायुस्ततोऽतिसार्येत क्षिप्रमुष्णं द्रवं प्लवम् ।। वातपित्तसमं लिङ्गैराहुः तद्वच्च शोकतः ॥ तथा दूसरे दो रूप सरक्तअतीसार या रक्तातीसार तथा निरस्र अतीसार के भी कहे गये हैं। (८) रक्तातीसार रक्तातीसार पित्तातीसारी को ही होता है और वह भी तब जब वह पित्तवर्द्धक अन्न-पानादिक का ही सेवन करता है। इसके सम्बन्ध में चरकसंहिता में लिखा है For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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